जानिए कश्मीरी पंडितों को, जिन्हें जान बचाने के लिए अपने ही घर से भागना पड़ा।

इस तरह का विरोध प्रदर्शन हर साल होता है, लेकिन इससे आज तक कुछ भी हासिल नहीं हुआ।

19 जनवरी 1990। ये वो तारीख है जिसे देश भले ही भूल जाए लेकिन कश्मीरी पंडित इस तारीख को कभी नहीं भूल सकते। कितने आंसू है, कितनी तकलीफें हैं, अपनों से बिछड़ना है, अपनों में मरते हुए देखना है और उसमें से भी जो सबसे भयानक है वो है अपनी मिट्टी और और अपने घर से हमेशा के लिए बाहर हो जाना। यह कहानी कोई फिल्मी नहीं है जिसे इतनी आसानी से सुनाया जा सकता है। ये अपने आप को पीड़ित कहे या बदकिस्मत इस बात का फैसला कश्मीरी पंडित आज तक नहीं कर सके हैं। 19 जनवरी 1990 तो अंजाम का दिन था लेकिन उससे पहले क्या – क्या हुआ हम आपको वो सब बातें विस्तार से आगे बताने वाले हैं।

सबसे पहले कश्मीरी हिन्दू या कश्मीरी पंडित के बारे में थोड़ा जान लेते हैं

कश्मीर की खूबसूरती ने दुनियाभर के लोगों को अपनी और आकर्षित किया है। यह भारत की आजादी से पहले की बात है। कश्मीरी हिंदुओं को कश्मीरी पंडित कहा जाता है और सभी ब्राह्माण माने जाते हैं। कश्मीर में रहने वाले पंडितों की कई श्रेणियां थी जिनमें से दो प्रमुख थे – बनमासी और मलमासी। बनमासी उन पंडितों को बोलते थे जो कश्मीर को छोड़कर चले गए थे और बाद में फिर से वापस आ गए। वहीं दूसरी तरह जिसने कभी भी कश्मीर को नहीं छोड़ा उन्हें मलमासी कहा जाता है। कुछ ऐसे भी पंडित थे जो कश्मीर में सिर्फ व्यवसाय करते थे, उन्हें बहिर पंडित कहा जाता था। लेकिन आजादी के बाद कश्मीर में आतंक और अलगाववाद ऐसा सक्रीय हुआ कि इन सभी का नामों निशाँ ही मिट गया। अब यह सब कुछ इतिहास बन चूका है।

आजादी के बाद क्या हुआ कश्मीर में?

भारत के विभाजन के तुरंत बाद ही कश्मीर पर पाकिस्तान ने कबाइलियों के साथ मिलकर आक्रमण कर दिया और बेरहमी से कई दिनों तक कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार किए गए, क्योंकि पंडित नेहरू ने सेना को आदेश देने में बहुत देर कर दी थी। इस देरी के कारण वहां पाकिस्तान ने कश्मीर के एक तिहाई जमीन पर कब्जा कर लिया, वहीं उसने कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम कर उसे वहां से बिलकुल मिटा ही दिया। अब जो भाग रह गया वह अब भारत के जम्मू और कश्मीर प्रांत का एक खंड है और जो पाकिस्तान के कब्जे वाला है, उसे पाक अधिकृत कश्मीर या गुलाम कश्मीर कहा जाता है, जहां से कश्मीरी युवकों को धर्म के नाम पर भारत के खिलाफ भड़काकर कश्मीर में आतंकवाद फैलाया जाता है। और कई सारे ट्रेनिंग कैम्प्स भी चलाए जा रहे हैं।

ये हैं कश्मीर के हिन्दू, जिनके कश्मीरियत को भुला दिया गया।

24 अक्टूबर 1947 की बात है, पठान जातियों के कश्मीर पर आक्रमण को पाकिस्तान ने उकसाया, भड़काया और समर्थन दिया। तब कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद का आग्रह किया। नेशनल कांफ्रेंस, जो कश्मीर सबसे बड़ा और लोकप्रिय संगठन था और जिसके अध्यक्ष शेख अब्दुल्ला थे, उसने भी भारत से रक्षा की अपील की। पहले तो अलगाववादी संगठन ने कश्मीरी पंडितों से केंद्र सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए कहा था, लेकिन जब पंडितों ने ऐसा करने से इनकार दिया तो उनके खिलाफ अत्याचार शुरू हुआ जो अब तक बदस्तूर जारी है।

कहानी जब कश्मीर की है तो इसमें रूस, अमेरिका और अफगानिस्तान क्या कर रहा है?

लेकिन असली कहानी तो तब शुरू हुई जब अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस के मामले में उंगली करना शुरू किया। यह 1980 से 1990 के बीच का साल चल रहा था। रूस अफगानिस्तान पर अटैक कर चुका था। अमेरिका रूस को वहां से निकालने की फिराक में था। लिहाजा अमेरिका की मदद से अफगानिस्तान के लोगों को मुजाहिदीन बनाया जाने लगा। ये लोग अपनी जान पर खेलकर रूस के सैनिकों को मारना चाहते थे। इसमें सबसे पहले वो लोग शामिल हुआ जो क्रूर, वहशी और अपराधी था।

इन सबकी ट्रेनिंग पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में होने लगी। जब आस-पास के लोगों से इनका संपर्क शुरू हुआ तो इनसे वो लोग जुड़ा जो इस तरफ का अपराधी था और कट्टरपंथी और अलगाववाद को समर्थन करता था। उस समय पाकिस्तान के शासक हुआ करता था जनरल ज़िया। शासकीय पद पर रहते हुए भी ज़िया वही काम कर रहा था जो ये अपराधी लोग कर रहे थे।

इनके क्रूर, कट्टरपंथ और वहशी से भरा जो शासन था इसमें सबसे ज्यादा नुकसान वहां की जनता का ही तो हो रहा था।

साल-दर-साल होनेवाले प्रदर्शन से कश्मीरी पंडित के जखम नहीं भरने वाले।

राहत इंदौरी का एक शेर है – “आग लगेगी तो कई घर आएंगे ज़द में, इस शहर में सिर्फ हमारा ही मकान थोड़े है”। बात भी वही हुई। जब ऐसे लोगों पर कार्रवाई शुरू हुई तब वहां के अलगाववादी संगठनों ने इस्लाम धर्म का ठेका उठाया। वो कहने लगे कि हम पहले से ही कहते थे कि कश्मीरी काफिर हमारे दुश्मन हैं। इन्हें यहां रहने नहीं दिया जाए। कश्मीर में पंडित कभी भी बहुसंख्यक में नहीं थे पर ये जरूर था कि पुलिस और प्रशासन में कश्मीरी पंडित ठीक-ठाक संख्या में थे, क्योंकि वो पढ़े लिखे होते थे। जज, डॉक्टर, कॉलेज प्रोफेसर, सिविल सर्वेंट समाज में ऐसे पद होते हैं जो आसानी से लोगों के नजरों में आ जाते हैं। अब ये तो जगजाहिर है कि अनपढ़, नासमझ और बुजदिल लोगों को ऐसे लोगों से जलन होती ही है।

अब अलगाववादी अपने क्रूरता के चरम पर था।

जिस जगह में कश्मीरी पंडित सदियों से रह रहे थे, जहाँ उनका घर, कारोबार और नौकरी हुआ करता था उनको  वहां से छोड़कर जाने के लिये कहा गया। पहले तो आस-पास के लोगों ने सपोर्ट किया कि नहीं, आपको कहीं नहीं जाना है। क्योंकि आपके आस पास सबलोग बुरे नहीं होते हैं लेकिन फिर बाद में कुछ तो डर और कुछ अपनी यूनिटी की भावना से बोले कि बेहतर यही होगा कि आप लोग यहाँ से चले जाइए। इसके पीछे कारण था।

बसों में ब्लास्ट होने लगे, यूं ही गोलियां चलने लगीं और कभी भी कुछ भी अनहोनी होने लगा। ऐसा नहीं था कि सिर्फ पंडित ही मरते थे। मुसलमान भी मरते थे। लेकिन धर्म की आग इतनी तेज थी कि उनके मरने की आवाज को आतंकवादियों और अलगाववादियों ने दबा दिया।

बात जब कश्मीर की हो तो यह कहने में किसी को भी गुरेज नहीं होनी चाहिए कि वहां के अलगाववादी ही वहां के आतंकवादी है। हर जगह यही धुन थी कि पंडितों को यहां से बाहर भेज देना है।

जब गुलाम मोहम्मद शाह ने सत्ता को हाथ में लिया तब क्या हुआ?

साल चल रहा था 1986। गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने बहनोई फारुख अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गये। धर्म की राजनीति में एक कदम आगे जाने के लिये उसने एक खतरनाक निर्णय लिया। कहा गया कि जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक पुराने मंदिर को तोड़कर भव्य शाह मस्जिद बनवाई जाएगी। तो लोगों ने प्रदर्शन किया, कि ये नहीं होगा। जवाब में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने नारा दिया – इस्लाम खतरे में है

गुलाम मोहम्मद शाह

इसके बाद इस्लामिक कट्टरपंथियों ने मिलकर कश्मीरी पंडितों पर धावा बोल दिया। साउथ कश्मीर और सोपोर में सबसे ज्यादा हमले किये गए जो हिन्दू बहुल इलाका था। हमलावरों का जोर इस बात पर रहता था कि प्रॉपर्टी लूट ली जाए। हत्यायें और रेप तो उनका पेशा था ही। इन हमलाओं का परिणाम यह हुआ कि 12 मार्च 1986 को राज्यपाल जगमोहन ने गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार को दंगे न रोक पाने की नाकामी के चलते बर्खास्त कर दिया। जाहिर सी बात है, दंगा करवानेवाला खुद ही दंगा क्यों रुकवाएगा।

कश्मीर को सुधरने का एक मौका मिला लेकिन फायदा नहीं होने दिया गया।

साल 1987 में चुनाव हुए। कट्टरपंथी की इस चुनाव में हार हुई। ये आखिरी मौका था, जब वहां के समाज को अच्छे से पटरी पर लाया जा सकता था। वही मौका था, जब बहुत कुछ ठीक किया जा सकता था। क्योंकि चुनाव में कट्टरपंथ का हारना इस बात का सबूत है कि जनता अभी भी शांति चाहती थी। पर कट्टरपंथियों ने चुनाव में धांधली का आरोप लगाया और हर बात को इसी से जोड़ दिया कि इस्लाम खतरे में है।

जुलाई 1988 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बना। इस ऑर्गनाइजेशन का मकसद था कश्मीर को भारत से अलग करना। कश्मीरियत अब सिर्फ मुसलमानों की रह गई। हिन्दू कभी कश्मीर में रहते भी थे, इसका ख्याल अब किसी को नहीं था। पंडितों की कश्मीरियत को भुला दिया गया। 14 सितंबर 1989 वो तारीख है जिसने साफ़ कर दिया कि पंडितों का अब कश्मीर में कोई भविष्य नहीं है। इस तारीख को भाजपा के टॉप लीडर पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने बीच चौराहे पर मार दिया गया। हत्यारे पकड़ में नहीं आए, या योन खाने कि पकड़ने की कोशिश तक नहीं की गयी।

ये कुछ ऐसी घटनाएं थी जो खुली चेतावनी दे रही थी – भाग जाओ नहीं तो मार देंगे।

यह पंडितों को वहां से भगाने को लेकर पहली हत्या थी। इस घटना के सिर्फ डेढ़ महीने बाद ही रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की हत्या की गई। गंजू ने जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता और अलगाववादी मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। गंजू की हत्या के बाद उनके पत्नी को किडनैप कर लिया गया, बाद में वो कभी बरामद ही नहीं हो पायी। एक और हत्या हुआ वकील प्रेमनाथ भट का। ये उन लोगों की हत्याएं थी जो समाज के ऊँचे तबसे से आते थे और समाज में इनकी बात सुनी जाती थी। इन हत्याओं ने समाज को गंगा बना दिया था। इसी दौरान साल 1989 में जुलाई से नवंबर के बीच लगभग 70 अपराधियों को जेल से रिहा किया गया। इसके पीछे की वजह क्या थी इसका जवाब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार और अपने आप को कश्मीरियों का हमदर्द बताने वाले फारुख अब्दुल्ला ने कभी नहीं दिया।

अलगाववादी और इस्लामिक कट्टरपंथी नारे लगाते थे:

जागो जागो, सुबह हुई, रूस ने बाजी हारी है,
हिंद पर लर्जन तारे हैं, अब कश्मीर की बारी है।
अगर कश्मीर में रहना होगा, अल्लाहु अकबर कहना होगा।
रालिव, गालिव या चालिव। (हमारे साथ मिल जाओ, या मरो और भाग जाओ।)

अब कहानी हाशिए पर आती है।

4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार आफताब में हिज्बुल मुजाहिदीन ने छपवाया कि सारे पंडित कश्मीर की घाटी छोड़ दें। और अखबार ने जब इस चीज को छाप भी दिया तो आप और हम आतंक का बस अंदाजा ही लगा सकते हैं। एक दूसरा उर्दू अखबार अल-सफा ने इसी चीज को दोबारा छापा। चौराहों और मस्जिदों में लगे लाउडस्पीकर लगाकर कहा जाने लगा कि पंडित यहां से चले जाएं, अगर रुक गए तो अंजाम बुरा होगा।

इसके बाद इस्लामिक कट्टरपंथी और अलगावादी आतंकवादियों के साथ मिलकर हिन्दुओं के घरों में हत्यायें और रेप करने लगा। वो जोर-जोर के लाउडस्पीकर पर कहते थे कि – “पंडितो, यहां से भाग जाओ, पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ। असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान। कश्मीरी भाषा के इस वाक्य का मतलब था – हमें पाकिस्तान चाहिए। पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ। उसके बाद लगातार रेप, गैंगरेप, लूटपाट और हत्याएं होती रही लेकिन उसका रिकॉर्ड नहीं रहा। लोगों के किस्सों में रह गयी।

अगर हिन्दू उस दिन कश्मीर से भागते नहीं तो ऐसे ही कई नरसंहार सामने आता। मंदिरों को भी तोड़ दिया गया था।

एक आतंकवादी बिट्टा कराटे ने अकेले 20 लोगों को मारा था। इस बात को वो बड़े घमंड से सुनाया करता। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट इन सारी घटनाओं में सबसे आगे था। एक समय में जिसका मुखिया मकबूल भट्ट हुआ करता था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 60 हजार परिवार कश्मीर छोड़कर भाग गये। उन्हें आस-पास के राज्यों पंजाब और हिमाचल प्रदेश में में जगह मिली। लेकिन सिर्फ जान बचाने की। सर के ऊपर छत का संघर्ष अभी जारी था। अब आता है 19 जनवरी 1990 का दिन। इस दिन सबसे ज्यादा लोगों ने कश्मीर छोड़ा था। लगभग 4 लाख लोग अपने घर से बेघर हुए थे। देश भर में फैले ये कश्मीरी हिन्दू अपने ही वतन में शरणार्थी बनकर रह रहे हैं। इनमें से ज्यादातर अब दिल्ली और उसके आस पास के क्षेत्रों को अपना घर मान चुके हैं।

सरकार ने क्या किया इन कश्मीरी पंडितों के लिये?

विस्थापित परिवारों के लिए तमाम राज्य सरकारें और केंद्र सरकार तरह-तरह के पैकेज निकालती रहती हैं। कभी घर देने की बात करते हैं। कभी पैसा। लेकिन न्याय अब तक नहीं मिला किसी को। हालांकि नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2015 में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए 2 हजार करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी। लेकिन जमीनी स्तर पर यह कहहैं तक पहुंचा इसकी कोई खबर नहीं है।

साल 2002 में जब जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद बने थे तब उन्होंने पंडितों को वापस लौटने की अपील की थी। यकीन दिला रहे थे कि वो बिल्कुल सुरक्षित रहेंगे। लेकिन फिर 23 मार्च 2003 को राजधानी श्रीनगर से करीब 65 किलोमीटर दूर दक्षिणी कश्मीर के नदीमार्ग, पुलवामा में 11 परिवारों के कुल 24 लोगों को कतार में खड़ा करके गोलियों से भून डाला गया। ये सारे कश्मीरी पंडित थे। इन लाशों में 11 औरतें भी थीं। और…दो बच्चे भी। सबसे छोटा वाला बस दो साल का था। हमलावर लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी थे जो मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद के गालों पर तमाचा मार रहा था।

मुफ़्ती सईद और फारुख अब्दुल्ला। इन दोनों ने कश्मीर में शासन नहीं बल्कि राज किया है और हमेशा माइनॉरिटी को हाशिये पर रखा।

और चलते-चलते एक बात बतानी जरुरी है कि पिछले तीस सालों में कश्मीर जन्नत से जहन्नुम बन गया है। फारुख अब्दुल्ला हो या मुफ्ती मुहम्मद सईद या फिर दोनों की पीढ़ियां। किसी ने भी कश्मीर और कश्मीरी के बारे में कुछ नहीं सोचा। अगर सोचा तो सिर्फ अपने राजनीति के बारे में। अपने और अपने परिवार वालों के बारे में। इन्हीं कुछ राजनेताओं के उदासीनता से थककर नौजवान मिलिटेंट बन गए जिसका फायदा अलगाववादी और इस्लामिक कट्टरपंथी को हुआ। और यही कारण है कि कश्मीर की सड़कें खून से लाल होती रही।

साल 1990 के इस घटना के बाद दिसंबर 1992 का बाबरी विध्वंस और फिर जनवरी 1993 का बॉम्बे ब्लास्ट। दस साल और आगे बढ़ें तो साल 2002 गोधरा में मुसलामानों द्वारा हिन्दुओं को ट्रेन में जलाना और फिर गुजरात दंगा। धर्म की आग में यह देश इतना झुलस चुका है कि अब तो सब नार्मल जैसा लग रहा है। जिस इस्लामिक कट्टरपंथियों के द्वारा यह सब शुरू किया गया था उसका आका पाकिस्तान में कहीं दुबक कर बैठा है। इसीलिए एक समाज के तौर पर हर वर्ग के लोगों को संवेदनशील होना होगा।

उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती – अपने बाप के जैसा ये दोनों भी कभी कश्मीरी हिन्दुओं के काम नहीं आये और हमेशा बेतुके बयान दिए।

वर्तमान के केंद्रीय सरकार ने धरा-370 को हटाकर अब जम्मू कश्मीर से पूर्ण राज्य का दर्जा छीन लिया है और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में भागों में बाँट दिया है – जम्मू कश्मीर और लद्दाख। हालांकि आंकड़ों के मुताबिक अभी लगभग 20 हजार पंडित कश्मीर में रहते हैं। उम्मीद तो यही है कि जन्नत फिर से एक बार जन्नत बन जाए।

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