फिल्म रिव्यू: साहब बीवी और गैंगस्टर 3
कहते है अगर आप कोई अच्छा काम कर चुके हैं तो अगली बार लोगों की उम्मीदें आपसे बढ़ जाती है. फिर लोग जब आपसे मिलते है या फिर मिलने की उम्मीद लगाते हैं तो बेहतरी की उम्मीद के साथ, लेकिन मिलने के बाद जब उनको वो नहीं मिल पता है तो उसे थोड़ी सी मायूसी ज़रूर होती है. एक वाक्य में बोले तो फिल्म का नाम गैंगस्टर, बीवी और साहब होना चाहिए था.
कहानी क्या है?
“साहेब, बीवी और गैंगस्टर-3” शुरू होती है लन्दन से. जहाँ कुंवर उदय प्रताप सिंह (संजय दत्त) एक क्लब चलाता है और ऐय्याशी की ज़िन्दगी जी रहा होता है. वो शादीशुदा है और उसकी एक बेटी भी है. लेकिन उदय का फोकस सिर्फ अपने बिजनेस पर होता है. वहाँ के अपने क्लब में वो एक रशियन रूल नाम का गेम खेलते हैं. इस गेम में होता यह है कि छः ग्लास सामने होता है जिसमें एक में वोडका और बाकी के पाँच में पानी भरा होता है. जो वोडका वाला ग्लास पिक करता है उसे पहली गोली चलानी होती है. खैर इस खेल का का उदय मास्टर है क्योंकि यह उसका खानदानी खेल है. उदय गुस्से में आकर क्लब में एक कांड कर देता है और उसे फिर इंडिया डिपोर्ट कर दिया जाता है.
इधर इंडिया में फिर वही पुरानी बात, साहब आदित्य प्रताप सिंह (जिमी शेरगिल) जेल में ही है और बाहर उनकी बीवी माधवी देवी (माही गिल) राजनीती में बड़े झंडे गाड़ रही है. उनकी दूसरी बीवी रंजना (सोहा अली खान) शराब के नशे में धुत रहती है और साहब के आने का इंतज़ार कर रही है. साहब अंदर ही है और माधवी देवी की ये कोशिश हो रही है कि वो किसी भी तरह से बाहर ना आ पाए. हर दिन एक नयी चाल. खैर अपने वफादार कन्हैया और उसकी बेटी की मदद से साहब बाहर निकलते है और वापस अपनी जड़ें तलाशने में जुड़ जाते है. एक और किरदार है सुहानी (चित्रांगदा सिंह), जो उदय की गर्लफ्रेंड है.
फिल्म में प्रिवी पर्स का मुद्दा उठाया गया है. आज़ादी के समय भारत के सभी रजवाड़ों से उनके राज-पाट को लेकर भारत सरकार के अंडर में कर दिया गया था. इसके बदले उन्हें गुज़ारे के लिए पैसे दिए जाते थे. इसे ही प्रीवी पर्स कहते हैं. इसे साल 1971 में बंद कर दिया गया. जब आदित्य जेल से बाहर आते हैं तो उनकी लोकप्रियता गिर चुकी होती है. उन्हें अपनी पहुँच बनाने के लिए एक बड़े मिडिया फेम की ज़रूरत है. इसीलिए वो सभी रजवाड़ों को एक करके कोर्ट में पिटीशन डालना चाहते हैं. लेकिन इस राह में सबसे बड़ा रोड़ा है महाराजा हरी सिंह (कबीर बेदी). हरी सिंह उदय सिंह के चाचा है और विजय सिंह (दीपक तिजोरी) के बाप. अब यहाँ कैसे उदय सिंह साहब के संपर्क में आता है और बीवी से कुछ बन भी पता है कि नहीं, रजवाड़े मानते है या नहीं और गैंगस्टर का क्या होता है यही फिल्म को अंत तक खींचता है.
लेखन - निर्देशन
संजय चौहान और तिग्मांशु धुलिया ने मिलकर इसे लिखा है. फिल्म को थोड़ी और अच्छे से लिखी जाती तो मज़ा आ जाता. पिछली दो फिल्मों के मुकाबले यह फिल्म काफी कमजोर है. कमजोर लिखावट फिल्म की जान निकाल देती है. किसी भी किरदार को शिद्दत से नहीं लिखा गया है. अब जबकि सब किरदार स्थापित हो चुके है तो इसे और बेहतर बनाने की ज़रूरत आन पड़ी है. पहली फिल्म के रिलीज के बाद निर्देशक तिग्मांशु धुलिया ने कहा था कि वो बड़ी फिल्म बनाना चाहते थे मगर उनके पास बजट नहीं था. फिर दूसरी फिल्म में जब बजट मिला तो कमाल हो गया लेकिन यहां आकर फिसल गए. फिल्म उत्तर प्रदेश में बेस्ड है और बोली राजस्थानी बोली जा रही है. निर्देशन का इंसान कुछ नहीं कर सकता जब आपके पास सही स्क्रिप्ट नहीं हो.
एक्टिंग
जिमी शेरगिल का अपने साहब वाले अवतार से बाहर ना निकलना इस फिल्म के अगले पार्ट के लिए फायदेमंद है. उसी रुतबा के साथ जिमी परदे पर दिखे है और अच्छे लगे है. माही गिल से तो इस तरह के जितनी मर्जी काम निकलवा लो. संजय दत्त लगता है अब अपनी छवि सुधारकर ही दम लेंगे.
वो विलेन भी बनते हैं तो हीरो वाला काम ही करना चाहते है. जो कि फिल्म की सेहत के लिए सही नहीं है. कैरेक्टरवाईज सभी की परफॉर्मेंस सही है लेकिन चिंत्रांगदा सिंह को ऐसी फिल्मों से बचना चाहिए. यहाँ पर आपको बता दे कि इस फिल्म के लिए चित्रांगदा ने बाबूमोशाय बन्दूकबाज़ छोड़ी थी. लोल. . .!!
गीत - संगीत
कुमार का लिखा और नूरन सिस्टर्स का गाया जुगनी. . .गीत को शुरू में और अंत में रखा गया है और यही सबसे सही चीज है फिल्म में. बाकि पूरी फिल्म में संजय दत्त के साथ बाबा थीम चलता रहता है. बैकग्राउंड स्कोर को लाऊड नहीं रखा गया है, यह भी थोड़ी खटकने वाली बात है. किरदार मज़बूत और म्यूजिक कमजोर. ये तो बड़ी नाइंसाफी है.
और अंत में: पिछली दो फिल्मों के इन्फ़्लुएंस में आकर यदि आपको यह फिल्म देखनी है तब कोई बात ही नहीं, लेकिन अगर प्लॅनिंग करके जा रहे हैं तो इग्नोर कीजिए. वीकेंड पर और भी अच्छी फ़िल्में आयी है उसे देख लीजिए.