फिल्म रिव्यू: वीरे दी वेडिंग
फिल्म के टाइटल का मतलब है भाई की शादी. पंजाब में बड़े भाई को वीर कहते है. लेकिन फिल्म में भाई नहीं है. चार महिला मित्र है, जो अपने को लड़कों से कम नहीं समझती है. कुछ समय पहले एक फिल्म आयी थी - पिंक. उसमें भी तीनों लड़कियों के ऊपर ही कहानी थी. इसमें चार लड़कियाँ है. लेकिन इस फिल्म का सन्दर्भ अलग है. कैसे अलग है, क्या अलग है? आइए जानते है. . .
कहानी
यह चार दोस्तों की कहानी है. जो दिल्ली में रह रही है. स्कूल टाइम से ही चारों पार्टनर्स इन क्राइम है. कालिंदी (करीना कपूर खान), अवनी (सोनम कपूर आहूजा), साक्षी (स्वरा भास्कर) और मीरा (शिखा तलसानिया) चारों की अब स्कूलिंग खत्म हो गयी है. सब अपने-अपने ज़िन्दगी में व्यस्त है लेकिन सबकी बॉन्डिंग अब भी वही है, पुरानी वाली. सब अच्छे और संपन्न घरों से ताल्लुक रखती है. कालिंदी सिडनी में रह रही है, अवनी दिल्ली में डिवोर्स लॉयर है, साक्षी लन्दन में अपने पति को छोड़ आयी है और मीरा अपने विदेशी पति जॉन के साथ प्राग में रह रही है. मीरा का एक दो साल का बेटा भी है.
सिडनी में रह रही कालिंदी को उसका बॉयफ्रेंड ऋषभ (सुमित व्यास) शादी के लिए प्रपोज करता है तो वह हाँ कर देती है. जब वापस इंडिया आकर शादी करने का प्लान बनता है तब फिर चारों दोस्त 10 साल बाद मिलने का प्लान बताती है. वीरे की वेडिंग पर. सब दोस्त दस साल बाद मिलते है और फिर कहानी आगे बढ़ती है. कालिंदी की अपनी एक फैमिली प्रॉब्लम है जिसकी वजह से उसके पापा के साथ उसका अनबन है. अवनी डिवोर्स लॉयर है, लेकिन मम्मी के प्रेशर की वजह से शादी भी करनी है. साक्षी अपने पति के पास वापस जाएगी या नहीं, मीरा जो घर से भाग कर विदेशी के साथ शादी कर ली है, उसे उसके फैमिली अपनाएगी कि नहीं. जिस वीर के वेडिंग पर सब मिले है, वो वेडिंग भी हो पाती है कि नहीं. इसी तरह कुछ और ट्विस्ट के साथ फिल्म आगे बढ़ती है और आखिर में सारे सवालों का जवाब मिलता है.
लेखन - निर्देशन
किसी भी फिल्म को लिखने से पहले लेखक के दिमाग में उसका थॉट प्रोसेस चलता है. इस फिल्म के लिए जो सोच चाहिए थी, वो किसके दिमाग की उपज हो सकती है? कहना मुश्किल होगा क्योंकि फिल्म को एक पुरुष और एक नारी ने मिलकर लिखा है - निधि मेहरा और मेहुल सूरी. लेकिन लेखक तो लेखक होता है. किसी भी तरह के लिंग भेद से ऊपर. तो इसपर बात करना ही बेकार है. ये अपने समय से काफी पहले की फिल्म है. फिल्म में दिखाया गया है कि जब साक्षी अपने पति को छोड़कर लंदन से वापस दिल्ली आती है तो दिल्ली की अंटियाँ उनके ऊपर ताना मारने का एक भी मौका नहीं चुकती है. और यही नंगा सच भी है हमारे समाज का. दूसरों के घरों में झांकने का, भले ही अपनी लंका क्यों ना लगी हो.
वहीं एक दूसरी जगह, साक्षी को अपने पति के सामने हस्तमैथुन करते दिखाया गया है. निःसंदेह ही साक्षी के कैरेक्टर को सबसे बोल्ड और पावरफुल बनाया गया है. एक लड़की जो 23-25 साल तक सिर्फ अपने ही शर्तों पर ज़िन्दगी को जिया है वह रातों रात बदल तो नहीं सकती किसी के लिए. यह बात समाज को समझने में समय क्यों लगता है. लिखावट में गज़ब की कसावट है. स्क्रीनप्ले पर बहुत ही बारीकी से काम किया गया है. छोटी - छोटी चीज भी छूट नहीं पाती है. सभी किरदार को उसके अनुरूप पूरा स्पेस देकर लिखा गया है. फिर चाहे वो कालिंदी के चाचा हो या उनका दोस्त केशव. ऐसा कुछ भी लिखावट में नहीं है जो गैरज़रूरी हो.
बात निर्देशन की करे तो लेखक ने उनका आधा काम कर दिया था. फिर भी सोनम कपूर के साथ 2014 में खूबसूरत फिल्म बनाने वाले शशांक ने इस फिल्म में भी वैसा ही रंग भरा है. कमाल का निर्देशन. आज इंटरनेट के युग में अगर हम ये माने की मेट्रो शहर को ध्यान में रखकर बनाये गए फिल्म को छोटे शहर के लोग पसंद नहीं करेंगे तो ये गलत होगा. धारणाएं बदल चुकी है. लोगों में भरपूर समझ आ चुकी है. इस फिल्म से खुद को रिलेट करने वालों में छोटे शहर की लडकियां यक़ीनन ज्यादा होंगी. और यदि होंगी तो इसका पूरा श्रेय शशांक घोष को जाएगा.
अब तक हमें सिर्फ लड़कों की बॉन्डिंग वाली फ़िल्में ही देखने को मिलती थी. मसलन दिल चाहता है, ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा इत्यादि. लेकिन लड़कियों की ऐसी ही बॉन्डिंग के लिए इस फिल्म को देखा जाना चाहिए.
अभिनय
करीना, सोनम और स्वरा. इन तीनों को एक्टिंग के बारे में कुछ भी बताने की ज़रूरत नहीं है. सब कमाल की एक्टर है. अब बात चौथे की करे तो उसका नाम है - शिखा तलसानिया. वेक अप सिड में रनबीर कपूर की दोस्त लक्ष्मी का किरदार निभाकर चर्चित हुई शिखा बॉलीवुड के नामी कॉमेडियंस में एक टीकू तलसानिया की बेटी है. नहीं पहचाने टीकू को - अरे देवदास में शाहरुख़ के घर का नौकर धरमदास. ढोल फिल्म में राजपाल यादव के जीजाजी. अच्छा छोड़ो, राजा फिल्म का वो सीन तो याद होगा - मुझे गुस्सा नहीं आता है. बिलकुल वही.
चारों को ये किरदार निभाने में कोई मुश्किल नहीं हुई है. ऋषभ के किरदार में सुमित व्यास है. सुमित वेब की दुनिया से आते है. बड़े परदे पर उनका अपीयरेंस काबिलेतारीफ तो नहीं लेकिन ठीक है. लेकिन बड़े परदे पर रहना है तो इतने से ही काम नहीं चलेगा. कलिंदी के पापा बने अंजुम राजबली बहुत सटीक लगे है. पेशे से राईटर अंजुम कहीं से भी पार्ट टाइम एक्टर नहीं लगे है. मनोज पाहवा भी अपने चिर-परिचित अंदाज में है. परदे पर उनका अपीयरेंस आपको ठिठोली करने का मौका देता है. बाकी किरदार भी सटीक और सही है.
गीत - संगीत
इस मामले में ऐसा है कि फिल्म में कुल गाने है आठ. लेकिन जुबान पर कितने रहते है, तो एक भी नहीं. सभी सिचुएशनल सॉन्ग है जो फिल्म के साथ फ्लो में बहता रहता है. और अच्छा भी लगता है. फिल्म के आठ गाने को सात गीतकारों ने मिलकर लिखा है. तारीफ़ां गीत भले ही आपके प्लेलिस्ट में जगह बना चुकी हो लेकिन समझ में देर से आती है. इसे प्रोमोशनल सॉन्ग के तौर पर रखा गया है. एक और प्रोमोशनल सॉन्ग है, भंगरा ता सजदा. जिसे नए तरीके से गौरव सोलंकी ने लिखा है. और यही एक गीत आपके जुबां पर चढ़ती है. अरिजीत दत्ता का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के मिजाज के हिसाब से परफेक्ट है. भंगरा ता सजदा गाने को यहाँ देखिए:
और अंत में:
अगर आपको फ*, र**-रोना, सेक्स, स्लट जैसे शब्दों से परहेज ना हो तो आप फैमिली के साथ भी देख सकते है. नहीं तो वीकेंड पर अपने वीरे के साथ भी प्लान बनाया जा सकता है. लड़कियां ही नहीं लड़के भी. सोचने-समझने के लिए भी और मनोरंजन के लिए भी.
आपके लिए फिल्म का ट्रेलर भी हाज़िर है: