कविता – मधुबाला
मधुबाला
मधुवर्षिणि,
मधु बरसाती चल,
बरसाती चल,
बरसाती चल ।
झंकृत हों मेरे कानों में,
चंचल, तेरे कर के कंकण,
कटि की किंकिणि,
पग के पायल–,
कंचन पायल,
’छन्-छन्’ पायल ।
मधुवर्षिणि,
मधु बरसाती चल,
बरसाती चल,
बरसाती चल ।
1. मधुबाला
मैं मधुबाला मधुशाला की,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
मैं मधु-विक्रेता को प्यारी,
मधु के धट मुझ पर बलिहारी,
प्यालों की मैं सुषमा सारी,
मेरा रुख देखा करती है
मधु-प्यासे नयनों की माला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
2.
इस नीले अंचल की छाया
में जग-ज्वाला का झुलसाया
आकर शीतल करता काया,
मधु-मरहम का मैं लेपन कर
अच्छा करती उर का छाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
3.
मधुघट ले जब करती नर्तन,
मेरे नुपुर की छम-छनन
में लय होता जग का क्रंदन,
झूमा करता मानव जीवन
का क्षण-क्षण बनकर मतवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
4.
मैं इस आंगन की आकर्षण,
मधु से सिंचित मेरी चितवन,
मेरी वाणी में मधु के कण,
मदमत्त बनाया मैं करती,
यश लूटा करती मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
5.
था एक समय, थी मधुशाला,
था मिट्टी का घट, था प्याला,
थी, किन्तु, नहीं साक़ीबाला,
था बैठा ठाला विक्रेता
दे बंद कपाटों पर ताला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
6.
तब इस घर में था तम छाया,
था भय छाया, था भ्रम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
ऊषा का दीप लिये सर पर,
मैं आई करती उजियाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
7.
सोने सी मधुशाला चमकी,
माणिक द्युति से मदिरा दमकी,
मधुगंध दिशाओं में चमकी,
चल पड़ा लिये कर में प्याला
प्रत्येक सुरा पीनेवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
8.
थे मदिरा के मृत-मूक घड़े,
थे मूर्ति सदृश मधुपात्र खड़े,
थे जड़वत प्याले भूमि पड़े,
जादू के हाथों से छूकर
मैंने इनमें जीवन डाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
9.
मझको छूकर मधुघट छलके,
प्याले मधु पीने को ललके ,
मालिक जागा मलकर पलकें,
अंगड़ाई लेकर उठ बैठी
चिर सुप्त विमूर्छित मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
10.
प्यासे आए, मैंने आँका,
वातायन से मैंने झाँका,
पीनेवालों का दल बाँका,
उत्कंठित स्वर से बोल उठा
‘कर दे पागल, भर दे प्याला!’
मैं मधुशाला की मधुबाला!
11.
खुल द्वार गए मदिरालय के,
नारे लगते मेरी जय के,
मिटे चिन्ह चिंता भय के,
हर ओर मचा है शोर यही,
‘ला-ला मदिरा ला-ला’!,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
12.
हर एक तृप्ति का दास यहां,
पर एक बात है खास यहां,
पीने से बढ़ती प्यास यहां,
सौभाग्य मगर मेरा देखो,
देने से बढ़ती है हाला!
मैं मधुशाला की मधुबाला!
13.
चाहे जितना मैं दूं हाला,
चाहे जितना तू पी प्याला,
चाहे जितना बन मतवाला,
सुन, भेद बताती हूँ अंतिम,
यह शांत नहीं होगी ज्वाला.
मैं मधुशाला की मधुबाला!
14.
मधु कौन यहां पीने आता,
है किसका प्यालों से नाता,
जग देख मुझे है मदमाता,
जिसके चिर तंद्रिल नयनों पर
तनती मैं स्वपनों का जाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
15.
यह स्वप्न-विनिर्मित मधुशाला,
यह स्वप्न रचित मधु का प्याला,
स्वप्निल तृष्णा, स्वप्निल हाला,
स्वप्नों की दुनिया में भूला
फिरता मानव भोलाभाला.
मैं मधुशाला की मधुबाला!
2. मालिक-मधुशाला
१.
मैं ही मधुशाला का मालिक,
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
मधुपात्र, सुरा, साक़ी लाया,
प्याली बाँकी-बाँकी लाया,
मदिरालय की झाँकी लाया,
मधुपान करानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
२.
आ देखो मेरी मधुशाला,
साक़ीबालाओं की माला,
मधुमय प्याली, मधुमय प्याला,
मैं इसे सजानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
३.
जब ये मधु पी-पीकर छलकें,
देखो इनकी पुलकित पलकें,
कल कंधों पर चंचल अलकें,
मैं देख जिन्हें मतवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
४.
इनके मदिराभ अधर देखो,
मृदु कर, कमनीय कमर देखो,
कटि-किंकिण, पद-घूँघर देखो,
मैं मन को हरनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
५.
सब चली लिए मधुघट देखो,
’झरझर’ लहराते पट देखो,
’झिलमिल’ हिलते घूंघट देखो,
मैं चित्त चुरानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
६.
वे देतीं प्याले चूम-चूम,
वे बाँट रहीं मधु घूम-घूम,
वे झुक-झुककर, वे झूम-झूम,
मदमत्त बनानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
७.
पीनेवाले हैं बड़े-बड़े,
देखो, पीते कुछ खड़े-खड़े,
कुछ बैठ-बैठ, कुछ पड़े-पड़े,
यह सभा जुटानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
८.
कुछ आते हैं अरमान-भरे,
कुछ जाते हैं एहसान-भरे,
कुछ पीते गर्व-गुमान-भरे,
मन सबका रखनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
९.
अब चिंताओं का भार कहाँ,
अब क्रूर-कठिन संसार कहाँ,
अब कुसमय का अधिकार कहाँ,
भय-शोक भुलानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१०.
अब ज्ञान कहाँ, अज्ञान कहाँ,
अब पद-पदवी का ध्यान कहाँ,
अब जाति-वंश अभिमान कहाँ,
सम भाव बनानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
११.
हो मस्त जिसे होना, आए,
जितने चाहे साथी लाए,
जितनी जी चाहे पी जाए,
‘बस’ कभी न कहनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१२.
आओ सब-के-सब साथ चले,
सब एक ख़ाक ही के पुतले,
क्या ऊँच-नीच, क्या बुरे-भले,
मैं स्वागत करनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१३.
आओ, आओ, मत शरमाओ,
क्या सोच रहे हो ? बतलाओ,
है दाम नहीं, मत पछताओ,
मैं मुफ़्त लुटानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१४.
मैं पूछ-पूछ मदिरा दूँगा,
आशीष-दुआ सबकी लूँगा,
सबको खुश कर मैं खुश हूँगा,
जी खुश कर देनेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
१५.
कटु जीवन में मधुपान करो,
जग के रोदन को गान करो,
मादकता का सम्मान करो,
यह पाठ पढानेवाला हूँ ।
मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ !
3. मधुपायी
१.
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
पग-पायल की झनकार हुई,
पीने को एक पुकार हुई,
बस हम दीवानों की टोली
चल देने को तैयार हुई,
मदिरालय के दरवाज़ों पर
आवाज़ लगाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
२.
हमने छोड़ी कर की माला,
पोथी-पत्रा भू पर डाला,
मन्दिर-मस्जिद के बन्दीगृह
को तोड, लिया कर में प्याला
औ’ दुनिया को आज़ादी का
सन्देश सुनाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
३.
क्रोधी मोमिन हमसे झगड़ा,
पंडित ने मंत्रों से जकड़ा,
पर हम थे कब रुकनेवाले,
जो पथ पकड़ा, वह पथ पकड़ा,
पथ-भ्रष्ट जगत को मस्ती की
अब राह बताने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
४.
छिपकर सब दिन था जग पीता,
पीता न अगर कैसे जीता ?
जब हम न समझते थे इसको,
वह दिन बीता, वह युग बीता;
साक़ी से मिल मदिरा पीने
अब खुले-खज़ाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
५.
मग में कितने सागर गहरे,
कितने नद-नाले नीर-भरे,
कितने सर, निर्झर, स्रोत मिले,
पर, नहीं कहीं पर हम ठहरे;
तेरे लघु प्याले में ही बस
अपनत्व डुबाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
६.
है ज्ञात हमें नश्वर जीवन,
नश्वर इस जगती का क्षण-क्षण,
है, किन्तु, अमरता की आशा
करती रहती उर में क्रंदन,
नश्वरता और अमरता की आशा
अब द्वन्द्व मिटाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
७.
दूरस्थित स्वर्गों की छाया
से विश्व गया है बहलाया,
हम क्यों उनपर विश्वास करें,
जब देख नहीं कोई आया ?
अब तो इस पृथ्वी-तल पर ही
सुख-स्वर्ग बसाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
८.
हम लाए हैं केवल हस्ती,
ले, साक़ी, दे अपनी मस्ती,
जीवन का सौदा ख़त्म करें,
मिल मुक्ति हमें जाए सस्ती;
साक़ी, तेरे मदिरालय को
अब तीर्थ बनाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
९.
चिरजीवी हो साक़ीबाला !
चिर दिवस जिए मधु का प्याला !
जो मस्त हमें करनेवाली,
आबाद रहे वह मधुशाला !
इतने दिन जो बदनाम रही,
उसका गुण गाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
१०.
दी हाथ खुले तूने हाला,
हम सबने भी जी-भर ढाला,
यह तो अनबूझ पहेली है –
क्यों बुझ न सकी अंतर्ज्वाला ?
मदिरालय से पीकर के भी
क्या प्यासे जाने हम आए ?
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
११.
कल्पना सुरा औ’ साक़ी है,
पीनेवाला एकाकी है,
यह भेद हमें जब ज्ञात हुआ,
क्या और समझना बाकी है ?
जो गाँठ न अब तक सुलझी थी,
उसको सुलझाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
१२.
यह सपना भी बस दो पल है,
उर की भावुकता का फल है,
भोली मानवता चेत, अरे,
सब धोखा है, सारा छल है !
हम बिना पिए भी पछ़ताते,
पीकर पछ़ताने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
4. पथ का गीत
१.
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
सुन्दर-सुन्दर गीत बनाता,
गाता, सब से नित्य गवाता,
थकित बटोही का बहला मन
जीवन-पथ की श्रांति मिटाता,
यह मतवाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
२.
हम सब मधुशाला जाएंगे,
आशा है, मदिरा पाएंगे,
किंतु हलाहल ही यदि होगा
पीने से कब घबराएंगे !
पीनेवाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
३.
उफ़! कितने इस पथ पर आते,
पहुंच मगर, कितने कम पाते,
है हमको अफ़सोस. न इसका,
इसपर जो मरते तर जाते;
मरनेनेवाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
४.
यह तो दीवानों का दल है,
पीना सब का ध्येय अटल है,
प्राप्त न हो जब तक मधुशाला,
पड़ सकती किसके उर कल है!
वह मधुशाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
५.
झांक रहा, वह देखो, साकी
कर में एक सुराही बाँकी,
देख लिया क्या हमको आते?
धार लगी गिरने मदिरा की;
वह मघुशाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
६.
अपना-अपना पात्र संभालो,
ऊँचे अपने हाथ उठा लो,
सात बलाएं ले मदिरा की,
प्याले अपने होंठ लगा लो,
मधु का प्याला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
७.
प्याले में क्या आई हाला
नहीं, नहीं उतरी मधुबाला।
पीकर कैसे यह छवि खो दूँ-
सोच रहा हर पीनेवाला;
मादक हाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
८.
जिसमेँ झलक रही मधुशाला,
जिसमें प्रतिबिंबित मधुबाला,
कौन सकेगा पी उस मधु को
कितनी ही हो अंतर्ज्वाला?
उर की ज्वाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
5. सुराही
१.
मैं एक सुराही हाला की!
मैं एक सुराही मदिरा की!
मदिरालय हैं मन्दिर मेरे,
मदिरा पीनेवाले, चेरे,
पंडे-से मधु-विक्रेता को
जो निशि-दिन रहते हैं घेरे;
है देवदासियों-सी शोभा
मधुबालाओं की माला की ।
मैं एक सुराही हाला की!
२.
कोयल-बुलबुल की तान यहाँ,
घड़ियाली, और अजान यहाँ,
जिसको सुनकर खिंच आता है
पीनेवालों का ध्यान यहाँ,
तुलसी बिरवों-सी पावनता
है अंगूरों की लतिका की ।
मैं एक सुराही मदिरा की!
३.
सब आर्य प्रवर आ सकते हैं,
सब आर्येतर आ सकते हैं;
इस मानवता के मंदिर में
सब-नारी-नर आ सकते हैं;
केवल प्रवेश उसका निषिद्ध
जिसमें मधु-प्यास नहीं बाकी ।
मैं एक सुराही हाला की!
४.
सबका सम्मान समान यहाँ,
सबको समान वरदान यहाँ,
मैं शंकर-सी औढर दानी,
है मुक्ति बड़ी आसान यहाँ,
देरी है केवल फिरने की
सब पर मेरी चितवन बांकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
५.
इस मंदिर में पूजन मेरा,
अभिवादन-अभिनंदन मेरा,
निज भाग्य सराहा करते सब,
पाकर मादक दर्शन मेरा,
जिस तप से यह पदवी पाई
मैंने, कर लो उसकी झांकी!
मैं एक सुराही हाला की!
६.
मैं कुंभकार की चाक चढ़ी,
फिर मेरे तन पर बेलि कढ़ी,
तब गई चिता पा मैं रक्खी,
हर ओर अग्नि की ज्वाल बढ़ी,
जल चिता गई हो राख-राख,
मैं मिट्टी, किंतु, रही बाकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
७.
मैं मृत्यु विजय करके आई,
मैंने दैवी महिमा पाई,
मानव के नीरस जीवन में
मैं अमृत-सा मधुरस लाई,
इस गुण के कारण ही तो मैं
बन प्राण गई मधुशाला की।
मैं एक सुराही हाला की!
८.
मैं मधु से नहलार्ड जाती,
फिर प्यालों की माला पाती,
तब मेरे चारों ओर खड़ी
होकर मधुबालाएँ गातीं;
इस भाँति की गई है पूजा
जगती-तल पर किस प्रतिमा की ?
मैं एक सुराही मदिरा की!
९.
मैं मिट्टी की थी, लाल हुई,
मधु पीकर और निहाल हुई,
जब चली मुझे ले मधुबाला,
‘छलछल’ करके वाचाल हुई,
जिसको सुनकर पंडित-मुल्ले
भूले सब अपनी चालाकी।
मैं एक सुराही हाला की!
१०.
अब इनकी मिन्नत कौन करे?
इनके शापों से कौन डरे?
जब स्वर्ग लिए मैं फिरती हूं,
तब कौन क़यामत तक ठहरे?
जो प्राप्त अभी, उसके हित कल
की राह किसी ने कब ताकी?
मैं एक सुराही मदिरा की!
११.
मैं मधुबाला के कंधों पर
उपदेश यही देती चढ़कर-
‘अपने जीवन के क्षण-क्षण को
लो मेरी मादकता से भर;
यह मिलना-जुलना क्षण भर का
फिर जाना सबको एकाकी।’
मैं एक सुराही हाला की!
१२.
लघु, मानव का कितना जीवन,
फिर क्यों उसपर इतना बंधन;
यदि मदिरा का ही अभिलाषी,
पी सकता कुछ गिनती के कण!
चुल्लू भर में गल सकता है
उसके तन का जामा ख़ाकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
१३.
मैं हूँ प्यालों मेँ जम जाती,
मधु के वितरण में रम जाती,
भरती अगणित मुख में मदिरा,
अपनी निधि, पर, कब कम पाती;
मैं घूम जिधर पड़ती, उठती
है गूँज उधर ध्वनि ‘ला-ला’ की
मैं एक सुराही हाला की!
१४.
औरों के हित मेरी हस्ती,
औरों के हित मेरी मस्ती,
मैं पीती सिंचित करने को
इन प्यासे प्यालों की बस्ती,
आनंद उठाते ये, अपयश
की भागी बनती मैं, साकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
१५.
उन्मत्त- बनाना खेल नहीं,
मधु से भी बुझती प्यास कहीं;
उर तापों से पिघला मेरा,
यह नहीं सुरा की धार वही!
उर के आसव से ही होती
है शांति हृदय की ज्वाला की
मैं एक सुराही हाला की!
१६. तुमने समझा मधुपान किया?
मैंने निज रक्त प्रदान किया!
उर क्रंदन करता था मेरा,
पर मुख से मैंने गान किया!
मैंने पीड़ा को रूप दिया,
जग समझा मैंने कविता की।
मैं एक सुराही मदिरा की!
6. प्याला
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
१.
कल काल-रात्रि के अंधकार
में थी मेरी सत्ता विलीन,
इस मूर्तिमान जग में महान
था मैं विलुप्त कल रूप-हीं,
कल मादकता थी भरी नींद
थी जड़ता से ले रही होड़,
किन सरस करों का परस आज
करता जाग्रत जीवन नवीन?
मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ–
किस कुम्भकार का यह निश्चय?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
२.
भ्रम भूमि रही थी जन्म-काल,
था भ्रमित हो रहा आसमान,
उस कलावान का कुछ रहस्य
होता फिर कैसे भासमान.
जब खुली आँख तब हुआ ज्ञात,
थिर है सब मेरे आसपास;
समझा था सबको भ्रमित किन्तु
भ्रम स्वयं रहा था मैं अजान.
भ्रम से ही जो उत्पन्न हुआ,
क्या ज्ञान करेगा वह संचय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
३.
जो रस लेकर आया भू पर
जीवन-आतप ले गया छिन,
खो गया पूर्व गुण,रंग,रूप
हो जग की ज्वाला के अधीन;
मैं चिल्लाया ‘क्यों ले मेरी
मृदुला करती मुझको कठोर?’
लपटें बोलीं,’चुप, बजा-ठोंक
लेगी तुझको जगती प्रवीण.’
यह,लो, मीणा बाज़ार जगा,
होता है मेरा क्रय-विक्रय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
४.
मुझको न ले सके धन-कुबेर
दिखलाकर अपना ठाट-बाट,
मुझको न ले सके नृपति मोल
दे माल-खज़ाना, राज-पाट,
अमरों ने अमृत दिखलाया,
दिखलाया अपना अमर लोक,
ठुकराया मैंने दोनों को
रखकर अपना उन्नत ललाट,
बिक,मगर,गया मैं मोल बिना
जब आया मानव सरस ह्रदय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
५.
बस एक बार पूछा जाता,
यदि अमृत से पड़ता पाला;
यदि पात्र हलाहल का बनता,
बस एक बार जाता ढाला;
चिर जीवन औ’ चिर मृत्यु जहाँ,
लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ;
जो फिर-फिर होहों तक जाता
वह तो बस मदिरा का प्याला;
मेरा घर है अरमानो से
परिपूर्ण जगत् का मदिरालय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
६.
मैं सखी सुराही का साथी,
सहचर मधुबाला का ललाम;
अपने मानस की मस्ती से
उफनाया करता आठयाम;
कल क्रूर काल के गलों में
जाना होगा–इस कारण ही
कुछ और बढा दी है मैंने
अपने जीवन की धूमधाम;
इन मेरी उलटी चालों पर
संसार खड़ा करता विस्मय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
७.
मेरे पथ में आ-आ करके
तू पूछ रहा है बार-बार,
‘क्यों तू दुनिया के लोगों में
करता है मदिरा का प्रचार?’
मैं वाद-विवाद करूँ तुझसे
अवकाश कहाँ इतना मुझको,
‘आनंद करो’–यह व्यंग्य भरी
है किसी दग्ध-उर की पुकार;
कुछ आग बुझाने को पीते
ये भी,कर मत इन पर संशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
८.
मैं देख चुका जा मसजिद में
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़,
पर अपनी इस मधुशाला में
पीता दीवानों का समाज;
यह पुण्य कृत्य,यह पाप क्रम,
कह भी दूँ,तो क्या सबूत;
कब कंचन मस्जिद पर बरसा,
कब मदिरालय पर गाज़ गिरी?
यह चिर अनादि से प्रश्न उठा
मैं आज करूँगा क्या निर्णय?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
९.
सुनकर आया हूँ मंदिर में
रटते हरिजन थे राम-राम,
पर अपनी इस मधुशाला में
जपते मतवाले जाम-जाम;
पंडित मदिरालय से रूठा,
मैं कैसे मंदिर से रूठूँ ,
मैं फर्क बाहरी क्या देखूं;
मुझको मस्ती से महज काम.
भय-भ्रान्ति भरे जग में दोनों
मन को बहलाने के अभिनय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
१०.
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी,
है पड़ा तुझे बनना प्याला,
होना मदिरा का अभिमानी;
संघर्ष यहाँ किसका किससे,
यह तो सब खेल-तमाशा है,
यह देख,यवनिका गिरती है,
समझा कुछ अपनी नादानी!
छिप जाएँगे हम दोनों ही
लेकर अपना-अपना आशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
११.
पल में मृत पीने वाले के
कल से गिर भू पर आऊँगा,
जिस मिट्टी से था मैं निर्मित
उस मिट्टी में मिल जाऊँगा;
अधिकार नहीं जिन बातों पर,
उन बातों की चिंता करके
अब तक जग ने क्या पाया है,
मैं कर चर्चा क्या पाऊँगा?
मुझको अपना ही जन्म-निधन
‘है सृष्टि प्रथम,है अंतिम ली.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
7. हाला
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
१.
जग ने ऊपर की आँखों से
देखा मुझको बस लाल-लाल,
कह डाला मुझको जल्दी से
द्रव माणिक या पिघला प्रवाल,
जिसको साक़ी के अधरों ने
चुम्बित करके स्वादिष्ट किया,
कुछ मनमौजी मजनूँ जिसको
ले-ले प्यालों में रहे ढाल;
मेरे बारे में है फैला
दुनिया में कितना भ्रम-संशय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
२.
वह भ्रांत महा जिसने समझा
मेरा घर था जलधर अथाह,
जिसकी हिलोर में देवों ने
पहचाना मेरा लघु प्रवाह;
अंशावतार वह था मेरा
मेरा तो सच्चा रूप और;
विश्वास अगर मुझ पर,मानो–
मेरा दो कण वह महोत्साह,
जो सुरासुरों ने उर में धर
मत डाला वारिधि वृहत ह्रदय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
३.
मेरी मादकता से ही तो
मानव सब सुख-दुःख सका झेल,
कर सकी मानवों की पृथ्वी
शशि-रवि सुदूर से हेल-मेल,
मेरी मस्ती से रहे नाच
ग्रह गण,करता है गगन गान,
वह महोन्माद मैं ही जिससे
यह सृष्टि-प्रलय का खेल-खेल,
दु:सह चिर जीवन सह सकता
वह चिर एकाकी लीलामय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
४.
अवतरित रूप में भी तो मैं
इतनी महान,इतनी विशाल,
मेरी नन्हीं दो बूंदों ने
रंग दिया उषा का चीर लाल;
संध्या की चर्चा क्या,वह तो
उसके दुकूल का एक छोर,
जिसकी छाया से ही रंजित
पटल-कुटुम्ब का मृदुल गाल;
कर नहीं मुझे सकता बन्दी
दर-दीवारों में मदिरालय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
५.
अवतीर्ण रूप में भी तो है
मेरा इतना सुरभित शरीर,
दो साँस बहा देती मेरी
जग-पतझड में मधुऋतु समीर,
जो पिक-प्राणों में कर प्रवेश
तनता नभ में स्वर का वितान,
लाता कमलों की महफिल में
नर्तन करने को भ्रमर-भीड़;
मधुबाला के पग-पायल क्या
पाएँगे मेरे मन पर जय!
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
६.
लवलेश लास लेकर मेरा
झरना झूमा करता इसी पर,
सर हिल्लोलित होता रह-रह,
सरि बढ़ती लहरा-लहराकर,
मेरी चंचलता की करता
रहता है सिंधु नक़ल असफल;
अज्ञानी को यह ज्ञात नहीं,
मैं भर सकती कितने सागर.
कर पाएँगे प्यासे मेरा
कितना इन प्यालो में संचय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
७.
है आज प्रवाहित में ऐसे,
जैसे कवि के ह्रदयोद्गार;
तुम रोक नहीं सकते मुझको,
कर नहीं सकोगे मुझे पार;
यह अपनी कागज़ की नावें
तट पर बाँधो आगे न बढ़ो,
ये तुम्हें डूबा देंगी गलकर
हे श्वेत-केश-धर कर्णधार;
बह सकता जो मेरी गति से
पा सकता वह मेरा आश्रय
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
८.
उद्दाम तरंगों से अपनी
मस्जिद,गिरजाघर ,देवालय
मैं तोड़ गिरा दूँगी पल में–
मानव के बंदीगृह निश्चय.
जो कूल-किनारे तट करते
संकुचित मनुज के जीवन को,
मैं काट सबों को डालूँगी.
किसका डर मुझको?मैं निर्भय.
मैं ढहा-बहा दूँगी क्षण में
पाखंडों के गुरू गढ़ दुर्जय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
९.
फिर मैं नभ गुम्बद के नीचे
नव-निर्मल द्वीप बनाऊँगी,
जिस पर हिलमिलकर बसने को
संपूर्ण जगत् को लाऊँगी;
उन्मुक्त वायुमंडल में अब
आदर्श बनेगी मधुशाला;
प्रिय प्रकृति-परी के हाथों से
ऐसा मधुपान कराऊँगी,
चिर जरा-जीर्ण मानव जीवन से
पाएगा नूतन यौवन वय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
१०.
रे वक्र भ्रुओं वाले योगी!
दिखला मत मुझको वह मरुथल,
जिसमे जाएगी खो जाएगी
मेरी द्रुत गति,मेरी ध्वनि कल.
है ठीक अगर तेरा कहना,
मैं और चलूँगी इठलाकर;
संदेहों में क्यूँ व्यर्थ पडूँ?
मेरा तो विश्वास अटल–
मैं जिस जड़ मरु में पहुंचूंगी
कर दूँगी उसको जीवन मय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
११.
लघुतम गुरुतम से संयोजित —
यह जान मुझे जीवन प्यारा
परमाणु कँपा जब करता है
हिल उठता नभ मंडल सारा!
यदि एक वस्तु भी सदा रही,
तो सदा रहेगी वस्तु सभी,
त्रैलोक्य बिना जलहीन हुए
सकती न सूख कोई धारा;
सब सृष्टि नष्ट हो जाएगी,
हो जाएगा जब मेरा क्षय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल–मेरा परिचय!
8. प्यास
१.
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ’ मैं तृषित-हृदय!
तू अगम सिंधु की राशि लिए,
मैं मरु असीम की प्यास लिए,
मैं चिर विचलित संदेहों से,
तू शांत अटल विश्वास लिए;
तेरी मुझको आवश्यकता,
आवश्यकता तुझको मेरी;
मैं जीवन का उच्छवास लिए,
तू जीवन का उल्लास लिए;
तुझसे मिल पूर्ण चला बनने,
बस इतना ही मेरा परिचय।
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ’ मैं तृषित-हृदय!
२.
क्या कहती? ‘दुनिया को देखो,’
दुनिया रोती है, रोने दो
मैं भी रोया, रोना अच्छा,
आंसू से आंखें धोने दो;
रोनेवाला ही समझेगा
कुछ मर्म हमारी मस्ती का;
सुन, अश्रु-भरी आंखें कहतीं-
यह राग-रंग भी होने दो,
रोदन-गायन दोनों के स्वर
से सधती जग-वीणा की लय।
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ’ मैं तृषित-हृदय!
३.
क्या कहती? ‘दुनिया को देखा,’
दुनिया देती लानत मुझको,
है कहती फिरती गली-गली,
मदिरा पीने की लत मुझको;
दुनिया तो मुझसे है रूठी,
है तुली हुई वद कहने पर,
गंगाजल जब पैं पाता था,
कब दी उसने इज्जत मुझको?
बदनाम रहे हो मंदिर हैं,
यह तो फिर ठहरा मदिरालय
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ’ मैं तृषित-हृदय!
६.
अस्तित्व न था जब तृष्णा का,
मदिरालय था यह विश्रृंखल,
विक्रेता था मृतप्राय पड़ा,
चंचल साक़ी भी थे अविचल,
कुछ पता नहीं था प्यासों का,
क्या ज़िक्र घटों का, प्यालों का,
इस परी तृषा के आते ही
मच गई पलों में चहल-पहल;
है रंगमंच तृष्णा का ही,
जिस पर यह संसृति का अभिनय।
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ’ मैं तृषित-हृदय!
७.
पृथ्वी में जिसने प्यास भरी,
बादल में उसने नीर भरा,
तट-अधरों को नीचे रक्खा
है प्याला अम्बुधि का गहरा;
वह गुरु-महान की तृष्णा में
छोटों की प्यास नहीं भूला;
भौरों की प्यास बुझाने को
सर में पद्मों का पात्र धरा;
छोटे से छोटे तृण का ही
रख ध्यान बना नभ हिमकण-मय।
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ’ मैं तृषित-हृदय!
८.
सिंचित हो नभ की मदिरा से
यह धरा हरित हो लहराती,
तट गिर-गिर पड़ते सागर में,
अलि-अवली रस पी-पी गाती;
जिस-जिस उर मेँ दी प्यास गई,
दी तृप्ति गई उस-उस उर में;
मानव को ही अभिशाप मिला,
‘पीकर भी दग्ध रहे छाती !’
किन अपराधों के बदले में
मानव के प्रति यह क्रूर अनय !
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ’ मैं तृषित-हृदय!
९.
यह ‘क्रूर अनय’ सह सकता है
केवल इस बल पर मन मेरा,
इसके कारण ही तो, सुन्दरि,
सत्संग मिला मुझको तेरा;
मेरे दामन, तेरे आंचल
की गांठ’ लगा दी तृष्णा ने,
उर कुंड-हवन के ओर सभी
आ, दे मिलकर मंगल फेरा;
कर कौन अलग सकता हमको
हो जाने पर विधिवत् परिणय?
तेरा-मेरा संबंध यही-
तू मधुमय औ’ मैं तृषित-हृदय!
(अधूरी रचना)
9. बुलबुल
१.
सुरा पी,मद पी,कर मधुपान,
रही बुलबुल डालों पर बोल!
लिए मादकता का संदेश
फिर मैं कब से जग के बीच ,
कहीं पर कहलाया विक्षिप्त,
कहीं पर कहलाया मैं नीच;
सुरीले कंठों का अपमान
जगत् में कर सकता है कौन?
स्वयं,लो,प्रकृति उठी है बोल
विदा कर अपना चिर व्रत मौन
अरे मिट्टी के पुतलों, आज
सुनो अपने कानो को खोल,
सुरा पी,मद पी,कर मधुपान,
रही बुलबुल डालों पर बोल!
२.
यही श्यामल नभ का संदेश
रहा जो तारों के संग झूम,
यही उज्ज्वल शशि का संदेश
रहा जो भू के कण-कण चूम,
यही मलयानिल का संदेश
रहे जिससे पल्लव-दल डोल,
यही कलि-कुसुमों का संदेश
रहे जो गाँठ सुरभि की खोल,
यही ले-ले उठतीं संदेश
सलिल की सहज हिलोरें लोल;
प्रकृति की प्रतिनिधि बनकर आज
रही बुलबुल डालों पर बोल!
३.
अरुण हाला से प्याला पूर्ण
ललकता,उत्सुकता के साथ
निकट आया है तेरे आज
सुकोमल मधुबाला के हाथ;
सुरा-सुषमा का पा यह योग
यदि नहीं पीने का अरमान,
भले तू कह अपने को भक्त,
कहूँगा मैं तुझको पाषाण;
हमे लघु-मानव को क्या लाज,
गए मन मुनि-देवों के मन दोल;
सरसता से संयम की जीत
रही बुलबुल डालों पर बोल!
४.
कहीं दुर्जय देवों का कोप–
कहीं तूफ़ान कहीं भूचाल,
कहीं पर प्रलयकारिणी बाढ़,
कहीं पर सर्वभक्षिनी ज्वाल;
कहीं दानव के अत्याचार,
कहीं दीनों की दैन्य पुकार,
कहीं दुश्चिंताओं के भार
दबा क्रन्दन करता संसार;
करें,आओ,मिल हम दो चार
जगत् कोलाहल में कल्लोल;
दुखो से पागल होकर आज
रही बुलबुल डालों पर बोल!
५.
विभाजित करती मानव जाति
धरा पर देशों की दीवार,
ज़रा ऊपर तो उठ कर देख,
वही जीवन है इस-उस पर;
घृणा का देते हैं उपदेश
यहाँ धर्मों के ठेकेदार
खुला है सबके हित,सब काल
हमारी मधुशाला का द्वार,
करे आओ विस्मृत के भेद,
रहें जो जीवन में विष घोल;
क्रांति की जिह्वा बनकर आज,
रही बुलबुल डालों पर बोल!
६.
एक क्षण पात-पात में प्रेम,
एक क्षण डाल-डाल पर खेल,
एक क्षण फूल-फूल से स्नेह,
एक क्षण विहग-विहग से मेल;
अभी है जिस क्षण का अस्तित्व ,
दूसरे क्षण बस उसकी याद,
याद करने वाला यदि शेष;
नहीं क्या संभव क्षण भर बाद
उड़ें अज्ञात दिशा की ओर
पखेरू प्राणों के पर खोल
सजग करती जगती को आज
रही बुलबुल डालों पर बोल!
७.
हमारा अमर सुखों का स्वप्न,
जगत् का,पर,विपरीत विधान,
हमारी इच्छा के प्रतिकूल
पड़ा है आ हम पर अनजान;
झुका कर इसके आगे शीश
नहीं मानव ने मानी हार
मिटा सकने में यदि असमर्थ ,
भुला सकते हम यह संसार;
हमारी लाचारी की एक
सुरा ही औषध है अनमोल;
लिए निज वाणी में विद्रोह
रही बुलबुल डालों पर बोल!
८.
जिन्हें जीवन से संतोष,
उन्हें क्यूँ भाए इसका गान?
जिन्हें जग-जीवन से वैराग्य,
उन्हें क्यूँ भाए इसकी तान?
हमें जग-जीवन से अनुराग,
हमें जग-जीवन से विद्रोह;
हमें क्या समझेंगे वे लोग,
जिन्हें सीमा-बंधन का मोह;
करे कोई निंदा दिन-रात
सुयश का पीटे कोई ढोल,
किए कानों को अपने बंद,
रही बुलबुल डालों पर बोल!
10. पाटल-माल
२.
नग्न तृण, तरु, पल्लव, खग वृंद,
नग्न है श्यामल-तल आकाश,
नग्न रवि, शशि, तारक, नीहार,
नग्न बादल, विद्युत, वातास,
जलधि के आंगन में अविराम,
ऊर्मियाँ नर्तन करतीं नग्न,
सरोवर, नद, निर्झर, गिरि, श्रृंग,
नग्न रहकर ही रहते मग्न।
भली मानवता ही क्यों आज
रही अपने पर पर्दा डाल?
यही करती जगती से प्रश्न,
रही खिल वन में पाटल-माल!
३.
किसी युग में मानव की आंख
सकी स्वर्गिक सुषमा को तोल,
सकी दे उसका वांछित मूल्य
खुशी से उर की गांठें खोल;
आज कहलाता है अश्लील
हृदय का अनियंत्रित उद्गार,
विकृत जीवन को ही जग आज
समझ बैठा है लोकाचार;
प्रगतिमय यौवन का पट थाम
न बैठो, जग के कंटक जाल!
यही कहती कांटों से आज
रही खिल वन में पाटल-माल!
४.
पुण्य की है जिसको पहचान,
उसे ही पापों का अनुमान
सदाचारों से जो अनभिज्ञ,
दुराचारों से वह अज्ञान,
उसी के लज्जा से नत नेत्र,
जिसे गौरव का प्रतिपल ध्यान;
जगत के जीवन से अब, हाय,
गया उठ भोलेपन का भान!
लगा मत उस भोली को दोष,
न उस पर आंखें लाल निकाल;
स्वयं निज सौरभ से अनजान
रही खिल वन में पाटल-माल!
५.
करे मृदु पंखुरियों को कैद
कुटिल कांटों का कारागार,
बहाएँ बेचारी प्रति पात
मोतियों-से आंसू की धार,
सरसता की प्रतिमा प्रत्यक्ष
पड़ें जा पाषाणों के हाथ,
चला ज्ञानी देने उपदेश,
न्याय होता है सबके साथ;
समझ लें आंखों वाले खूब
नियति की कैसी टेढ़ी चाल;
रंगी अपने लहू से आज
रही खिल वन में पाटल-माल!
६.
नयन में पा आंसू की बूंद,
अधर के ऊपर पा मुसकान,
कहीं मत इसको हे संसार,
दु:खों का अभिनय लेना मान।
नयन से नीरव जल की धार
ज्वलित उर का प्राय: उपहार
हंसी से ही होता है व्यक्त
कभी पीड़ित उर का उद्गार;
तप्त आँसू से झुलसे गाल
किए कोई मदिरा से लाल;
इसी का तो करती संकेत
रही खिल वन में पाटल-माल!
७.
गगन के आंगन में विस्तीर्ण
खिला कोई पाटल का फूल,
उसी पर तारक हिमकण-रुप
नहीं उसकी डालों में शूल;
पंखुरी एक उसी की नित्य
प्रात में गिर पड़ती अनजान,
पूर्व से रंजित होकर और
उषा का बन जाती परिधान;
गिरे दल इसके हो जड़-म्लान,
बड़ा, रे, इसका रंज-मलाल;
विवशता की, पर, ले-ले सांस
रही खिल वन में पाटल-माल!
(अधूरी रचना)
11. इस पार उस पार
1
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरा-लहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
2
जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
3
प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थ बना कितना हमको;
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको;
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हल्का कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
4
कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
5
संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणें तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी तम की चादर से ढंक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मनाएगी;
जब इस लंबे-चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब तेरा मेरा नन्हाँ-सा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
6
ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गा-गा जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर ‘मरमर’ न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
7
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’, सरिता अपना ‘कलकल’ गायन,
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण;
संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
8
उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभाशुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
9
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
12. पाँच पुकार
१.
गूँजी मदिरालय भर में
लो,’पियो,पियो’की बोली!
संकेत किया यह किसने,
यह किसकी भौहें घूमीं?
सहसा मधुबालाओं ने
मदभरी सुराही चूमी;
फिर चली इन्हें सब लेकर,
होकर प्रतिबिम्बित इनमें,
चेतन का कहना भी क्या,
जड़ दीवारें भी झूमीं,
सबने ज्योहीं कलि-मुख की
मृदु अधर पंखुरियाँ खोलीं,
गूँजी मदिरालय भर में
लो,’पियो,पियो’की बोली!
२.
जिस अमृतमय वाणी के
जड़ में जीवन जग जाता,
रुकता सुनकर वह कैसे ,
रसिकों का दल मदमाता;
आँखों के आगे पाकर
अपने जीवन का सपना,
हर एक उसे छूने को
आया निज कर फैलाता;
पा सत्य,कलोल उठी कर
मधु के प्यासों की टोली,
गूँजी मदिरालय भर में
लो,’पियो,पियो’की बोली!
३.
सारी साधें जीवन की
अधरों में आज समाई,
सुख,शांति जगत् की सारी
छनकर मदिरा में आई,
इच्छित स्वर्गों की प्रतिमा
साकार हुई,सखि तुम हो;
अब ध्येय विसुधि,विस्मृत है,
है मुक्ति यही सुखदायी,
पलभर की चेतनता भी
अब सह्य नहीं, ओ भोली,
गूँजी मदिरालय भर में
लो,’पियो,पियो’की बोली!
४.
मधुघट कंधों से उतरे,
आशा से आँखे चमकीं,
छल-छल कण माणिक मदिरा
प्यालों के अंदर दमकी,
दानी मधुबालाओं में
ली झुका सुराही अपनी,
‘आरम्भ करो’कहती-सी
मधुगंध चतुर्दिक गमकी,
आशीष वचन कहने को
मधुपों की जिह्वा डोली;
गूँजी मदिरालय भर में
लो,’पियो,पियो’की बोली!
५.
दो दौर न चल पाए थे
इस तृष्णा के आंगन में,
डूबा मदिरालय सारा
मतवालों के क्रन्दन में;
यमदूत द्वार पर आया
ले चलने का परवाना,
गिर-गिर टूटे घट-प्याले,
बुझ दीप गये सब क्षण में;
सब चले किए सिर नीचे
ले अरमानो की झोली.
गूँजी मदिरालय भर में
लो,’चलो,चलो’की बोली!
13. पगध्वनि
पहचानी वह पगध्वनि मेरी ,
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१.
नन्दन वन में उगने वाली ,
मेंहदी जिन चरणों की लाली ,
बनकर भूपर आई, आली
मैं उन तलवों से चिर परिचित
मैं उन तलवों का चिर ज्ञानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
२.
उषा ले अपनी अरुणाई,
ले कर-किरणों की चतुराई ,
जिनमें जावक रचने आई ,
मैं उन चरणों का चिर प्रेमी,
मैं उन चरणों का चिर ध्यानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
३.
उन मृदु चरणों का चुम्बन कर ,
ऊसर भी हो उठता उर्वर ,
तृण कलि कुसुमों से जाता भर ,
मरुस्थल मधुबन बन लहराते ,
पाषाण पिघल होते पानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
४.
उन चरणों की मंजुल ऊँगली
पर नख-नक्षत्रों की अवली
जीवन के पथ की ज्योति भली,
जिसका अवलम्बन के जग ने
सुख-सुषमा की नगरी जानी.
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
५.
उन पद-पद्मों के प्रभ रजकण
का अंजित कर मंत्रित अंजन
खुलते कवि के चिर अंध-नयन,
तम से आकर उर से मिलती
स्वप्नों कि दुनिया की रानी.
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
६.
उन सुंदर चरणों का अर्चन ,
करते आँसू से सिंधु-नयन!
पद-रेखों में उच्छ्वास पवन —
देखा करता अंकित अपनी
सौभाग्य सुरेखा कल्याणी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
७.
उन चल चरणों की कल छम-छम –
से ही निकला था नाद प्रथम ,
गति से मादक तालों का क्रम ,
निकली स्वर-लय की लहर जिसे
जग ने सुख की भाषा मानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
८.
हो शांत जगत के कोलाहल!
रुक जा,री!जीवन की हलचल!
मैं दूर पड़ा सुन लूँ दो पल,
संदेश नया जो लाई है
यह चाल किसी की मस्तानी.
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
९.
किसके तमपूर्ण प्रहर भागे?
किसके चिर सोए दिन जागे?
सुख-स्वर्ग हुआ किसके आए?
होगी किसके कंपित कर से
इन शुभ चरणों की अगवानी?
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१०.
बढता जाता घुँघरू का रव ,
क्या यह भी हो सकता संभव?
यह जीवन का अनुभव अभिनव!
पदचाप शीघ्र , पद-राग तीव्र!
स्वागत को उठे,रे कवि मानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
११.
ध्वनि पास चली मेरे आती
सब अंग शिथिल पुलकित छाती,
लो, गिरती पलकें मदमाती ,
पग को परिरम्भण करने की ,
पर इन युग बाँहों ने ठानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१२.
रव गूँजा भू पर, अम्बर में ,
सर में, सरिता में ,सागर में ,
प्रत्येक श्वास में, प्रति श्वर में,
किस-किस का आश्रय ले फूलें,
मेरे हाथों की हैरानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१३.
ये ढूँढ रहे हैं ध्वनि का उद्गम
मंजीर-मुखर-युत पद निर्मम
है ठौर सभी जिनकी ध्वनि सम,
इनको पाने का यत्न वृथा,
श्रम करना केवल नादानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१४.
ये कर नभ-जल-थल में भटके,
आकर मेरे उर पर अटके,
जो पग-द्वय थे अंदर घट के,
ये ढूँढ रे उनको बाहर,
ये युग कर मेरे अज्ञानी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
१५.
उर के ही मधुर अभाव चरण
बन करते स्मृति पट पर नर्तन ,
मुखरित होता रहता बन-बन,
मैं ही इन चरणों में नूपुर,
नूपुर-ध्वनि मेरी ही वाणी!
वह पगध्वनि मेरी पहचानी!
14. आत्मपरिचय
1
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!
2
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
3
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
4
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव-मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!
5
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
6
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!
7
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
8
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं उस खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ!
9
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
10
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!