कारगिल के हीरो – कैप्टन विक्रम बत्रा, जो हमेशा बोलते थे “ये दिल मांगे मोर”
दुनिया में हुए हर युद्ध से कोई ना कोई हीरो बनके निकलता है। चाहे हो विश्व युद्ध हो, सोवियत युद्ध या फिर कोई और युद्ध। ऐसे ही एक युद्ध हमने लड़ा था पाकिस्तान से साल 1999 में। उस युद्ध में हमारे सैकड़ों जवान भारत की आन-बान-शान पर खुद को कुर्बान कर दिए और हिंदुस्तान को एक बार फिर से पूरी दुनिया में सर ऊँचा करने का मौका दिया। इस युद्ध में हमने कई बेशकीमती हिरे खो दिए, जिसका मलाल हर भारतीय को हमेशा रहेगा। आज उन्हीं हीरो में से एक हीरो की बात होगी – कैप्टन विक्रम बत्रा।
जन्म, पारिवारिक माहौल और पढ़ाई – Early Life of Captain Vikram Batra
9 सितम्बर 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जिले के गोद में बसा एक छोटे से गाँव घुग्गर में उनका जन्म हुआ था। पिता का नाम जी एल बत्रा और माता का नाम कमलकांता था। माता कमलकांता की श्रीरामचरितमानस में गहरी श्रद्धा थी तो उन्होंने दोनों का नाम लव-कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल। विक्रम और विशाल बत्रा दोनों जुड़वाँ थे। पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया। आर्मी कैंट में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम जाग उठा।
आगे की पढ़ाई करने के लिए विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज, चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान वह एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुने गए और उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लिया। उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा) की भी तैयारी शुरू कर दी। विक्रम को ग्रेजुएशन के बाद हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी लेकिन सेना में जाने के जज्बे वाले विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया।
सेना में भर्ती और कारगिल का युद्ध – Army Career and The Kargil War
विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में प्रशिक्षण समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। अब कारगिल शुरू हो चुका था। पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया।
इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाकिस्तानी सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को मिली। बेहद दुर्गम और मुश्किल क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया। भारत के लिए यह एक अहम जीत थी। जिसके हीरो विक्रम बत्रा थे। यह उन्हीं की रणनीति का कमाल था। इससे पहले वो 16 जून को अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी में लिखा – “प्रिय कुशु, माँ और पिताजी का ख्याल रखना। यहाँ कुछ भी हो सकता है।” ये खत इसीलिए था क्योंकि कैप्टन विक्रम बत्रा स्थिति की गंभीरता को भांप चुके थे।
कहानी ये दिल मांगे मोर की. . . .
कैप्टन विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आ गयी। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया और इसके लिए भी कैप्टन विक्रम और उनकी टुकड़ी को जिम्मेदारी दी गयी। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए अपने साथियों के साथ, जिनमे लेफ्टिनेंट अनुज नैयर भी शामिल थे, कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।
इस ऑपरेशन में लेफ्टिनेंट अनुज नैय्यर ने विक्रम बत्रा के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को ढेर किया था। मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने जूनियर ऑफिसर लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गये थे। कैप्टन बत्रा ने बोला- ‘तुम हट जाओ, तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं’ और वे उन्हें पीछे घसीटने लगे। कैप्टन बत्रा नवीन को बचाने के लिए जब उनको पीछे घसीट ही रहे थे, तभी उनकी छाती में गोली लगी और 7 जुलाई 1999 को भारत का यह शेर शहीद हो गया।
शहादत और कैप्टन विक्रम बत्रा की लीजेंडरी – The Legend of Captain Vikram Batra
शहादत को दो दशक बीत गए पर अब भी उनके दोस्त उनका जिक्र सुनते ही यह जुमले दोहराते हैं ‘या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा, पर मैं आऊंगा जरूर’, ‘ये दिल मांगे मोर’। पिताजी श्री गिरधारी लाल बत्रा बताते हैं कि विक्रम की बात एकदम अलग थी। आर्मी से पहले मर्चेंट नेवी में नौकरी मिली पर ठुकरा दी। मां से बोला, मम्मी मुझको देश के लिए कुछ करना है। विक्रम नेताजी सुभाष चंद्र बोस और चंद्रशेखर आजाद से बहुत ज्यादा प्रभावित थे।
शेरशाह की उपाधि और सबसे कम उम्र का परमवीर चक्र धारी
जनरल वीपी मलिक ने अपनी किताब ‘कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ में कैप्टन बत्रा का जिक्र है। विक्रम ने हैंड-टू-हैंड फाइट में चार पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया और प्वाइंट 5140 पर कब्जा किया। इसके बाद रेडियो पर जीत का कोड बोला- यह दिल मांगे मोर…। कारगिल के दौरान बत्रा को पाकिस्तान सेना के इंटरसेप्टेड संदेशों में ‘शेरशाह’ कहा जाता था। उसी साल 15 अगस्त 1999 को लाल किले पर उनको मरणोपरांत परमवीर चक्र के सम्मानित किया गया, जो उनके श्री गिरधारी लाल बत्रा ने प्राप्त किया। जाते जाते एक और बात बताते चलते हैं आपको – कैप्टन विक्रम बत्रा ने 18 वर्ष की आयु में ही अपने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। वह नेत्र बैंक के कार्ड को हमेशा अपने पास रखते थे, ताकि दूसरे उनसे इंस्पायर हो सके।
जब तक यह भारत देश रहेगा तब तक कैप्टन हमारी यादों में जिन्दा रहेंगे और देश के लिए कुछ कर गुजरने की हिम्मत देते रहेंगे। साल 2003 में जब कारगिल वार पर पर आधारित जेपी दत्ता की फिल्म आयी थी उसमें अभिनेता अभिषेक बच्चन ने उनका किरदार निभाया था।
तो यह थी कारगिल वार के हमारे हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा की शहादत की कहानी। इसी सीरीज में हम और हीरोज की कहानी लगातार आप तक लेकर आते रहेंगे। इसके लिए आप हमारे साथ जुड़े रहिये।
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