शिकार को निकला शेर – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

एक शेर एक रोज जंगल में शिकार के लिए निकला। उसके साथ एक गधा और कुछ दूसरे जानवर थे। सब-के-सब यह मत ठहरा कि शिकार का बराबर हिस्‍सा लिया जाएगा। पूरा पढ़ें...

शिकार को निकला शेर – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

सौदागर और कप्तान – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

एक सौदागर समुद्री यात्रा कर रहा था, एक रोज उसने जहाज के कप्‍तान से पूछा, ''कैसी मौत से तुम्‍हारे बाप मरे?"कप्‍तान ने कहा, ''जनाब, मेरे पिता, मेरे दादा और मेरे परदादा समंदर में डूब मरे।'' पूरा पढ़ें...

सौदागर और कप्तान – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

महावीर और गाड़ीवान – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

एक गाड़ीवान अपनी भरी गाड़ी लिए जा रहा था। गली में कीचड़ था। गाड़ी के पहिए एक खंदक में धँस गए। बैल पूरी ताकत लगाकर भी पहियों को निकाल न सके। पूरा पढ़ें...

महावीर और गाड़ीवान – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

कंजूस और सोना – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

एक आदमी था, जिसके पास काफी जमींदारी थी, मगर दुनिया की किसी दूसरी चीज से सोने की उसे अधिक चाह थी। इसलिए पास जितनी जमीन थी, कुल उसने बेच डाली और उसे कई सोने के टुकड़ों में बदला। पूरा पढ़ें...

कंजूस और सोना – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

गधा और मेंढक – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

एक गधा लकड़ी का भारी बोझ लिए जा रहा था। वह एक दलदल में गिर गया। वहाँ मेंढकों के बीच जा लगा। रेंकता और चिल्‍लाता हुआ वह उस तरह साँसें भरने लगा, जैसे दूसरे ही क्षण मर जाएगा। पूरा पढ़ें...

गधा और मेंढक – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

दो घड़े – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

एक घड़ा मिट्टी का बना था, दूसरा पीतल का। दोनों नदी के किनारे रखे थे। इसी समय नदी में बाढ़ आ गई, बहाव में दोनों घड़े बहते चले। बहुत समय मिट्टी के घड़े ने अपने को पीतलवाले से काफी फासले पर रखना चाहा। पूरा पढ़ें...

दो घड़े – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी (व्यंग्य) – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

श्रीमती गजानन्‍द शास्त्रिणी श्रीमान् पं. गजानन्‍द शास्‍त्री की धर्मपत्‍नी हैं। श्रीमान् शास्‍त्री जी ने आपके साथ यह चौथी शादी की है, धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणी के पिता को षोडशी कन्‍या के लिए पैंतालीस साल का वर बुरा नहीं लगा, पूरा पढ़ें...

श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी (व्यंग्य) – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला