हाजी मस्तान: बिना हथियार के बम्बई पर बीस सालों तक राज करने वाला डॉन
कहानी शुरू होगी तो बहुत ही दूर तलक जाएगी। आज बहुत दिनों के बाद हम आपलोगों के लिए क्राइम बीत लेकर आये हैं। आप सभी ने हमारे क्राइम स्टोरीज को बहुत सपोर्ट किया है। चाहे हो ईदी अमीन का हो, नटवरलाल का या फिर वीरप्पन का। इसी सीरीज में हम आपके लिए लेकर आये हैं आज कहानी बम्बई का पहला डॉन हाजी मस्तान मिर्जा का। हाजी मस्तान मिर्जा वो डॉन था जिसने कभी किसी पर गोली नहीं सवहलय, कभी किसी आम आदमी को परेशान नहीं किया। वो बस एक बिजनेसमैन के तौर पर अपना काम किया। ऐसा नहीं है की उसे हम अच्छा बता रहे हैं। क्राइम कभी भी सही या गलत नहीं हो सकता। क्राइम हमेशा गलत ही होता है। लेकिन हाजी मस्तान की इमेज ऐसी थी की उसके बारे में बात करने को मन करता है। तो चलिए कहानी शुरू करते हैं।
जन्म और शुरुआती जीवन
1 मार्च 1926 को भारत क्ले दक्षिणी राज्य पनाईकुलम, तमिनाडु में जन्में हाजी मस्तान का पूरा और असली नाम हैदर मस्तान मिर्जा था। उसका नाम हाजी मस्तान कैसे पड़ा इसकी कहानी आगे है। हैदर मस्तान मिर्जा एक गरीब घर में पैदा हुआ था। उनके पिता किसान थे। घर में आमदनी कुछ ज्यादा नहीं थी। दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से जुगाड़ हो पाता था। फिर एक वक्त आया कि घर में खाना बनना बंद हो गया। साल 1934 में हैदर के पिता ने तय किया कि अब बंबई चलेंगे और वहीं पर कुछ काम-धंधा किया जाएगा। मद्रास से बम्बई आना तो आसान था लेकिन बम्बई में काम मिलना नहीं। कुछ छोटे-मोटे काम करके हैदर के पिता ने कुछ पैसों का जुगाड़ किया और फिर उन्होंने साउथ बॉम्बे के क्रॉफर्ड मार्केट के पास बंगाली टोला में साइकिल पंचर बनाने की एक दुकान खोल ली। 10 साल का मस्तान पिता के साथ बैठ कर काम देखता और सीखता रहता था।
आठ साल बीत गए, मस्तान वहीं का वहीं खड़ा था। उसे कोई तरक्की नहीं मिल रही थी। अब मस्तान 18 साल का हो गया था। सड़क के किनारे उसी दूकान पर काम करता रहा और किसी भी तरह से अपना घर चलाते रहा। लेकिन उसे बस इतना सा मंजूर नहीं था। उसे कुछ बड़ा करना था। किस्मत का पासा थोड़ा सा उस दिन पलटा जब उसके दूकान पर उसी के पहचान वाला एक आदमी मिला। नाम था – गालिब शेख। गालिब शेख ने मस्तान से कहा कि यहाँ रहकर तुम कुछ भी पैसा नहीं बना सकते हो। पैसा ही बनाना है तो मेरे साथ चलो बम्बई पोर्ट पर। वहां सामानों से भरा ट्रक उतरता है। वहां पर तुम कुली का काम करना। हैदर मस्तान को उसकी बात सही लगी और वो चल पड़ा कुली का काम करने के लिए। उसे वहां ठीक-ठाक पैसे मिलने लगा फिर वो वहीं काम करने लगा।
एक सही इंसान मिला और समय ने करवट ले लिया
लेकिन गालिब शेख था तेज-तर्रार आदमी। उसे हैदर मस्तान से सिर्फ कुली का काम ही नहीं बल्कि कुछ और भी करवाना था। गालिब ने हैदर को कहा कि एक और काम है जो अगर तुम करोगे तो इससे भी ज्यादा पैसे मिलेंगे। हैदर मस्तान मिर्जा ने जब उत्सुकता दिखाई तो गालिब ने कहा कि कुछ सामान को चोरी से पोर्ट के बाहर लाना है। अगर तुम ये कर लोगे तो और पैसे मिलेंगे। सारा खेल ही पैसे का था, हैदर मस्तान मिर्जा अपने शर्ट में उस सामान छुपाकर बहार ले आया। और यहीं से उसका स्मगलिंग का दौर शुरू हो चूका था। वो दौर जो उसे नाम, पैसा,शोहरत और बुलंदी देने वाला था।
उस वक्त हिंदुस्तान में इलेक्ट्रॉनिक सामान, महंगी घड़ियां, गहने इन सब चीजों की तस्करी होती थी। क्योंकि हिंदुस्तान में कुछ बनता नहीं था। लीगल तरीके से मंगाने पर टैक्स बहुत ज्यादा देना पड़ता था। इस तरह तस्करी का रास्ता निकाल लिया गया था। लगभग 12 साल बाद मस्तान की मुलाकात हुई गुजरात के कुख्यात तस्कर सुकुर नारायण बखिया से। अब दोनों की खूब जमने लगी थी। तब तक फिलिप्स के ट्रांजिस्टर और कुछ इलेक्ट्रॉनिक सामन भी आ चुके थे। अब तस्करी का धंधा और ज्यादा फलने-फूलने लगा था। हैदर मस्तान को अब पोर्ट भाने लगा था और वो उसे भुनाने भी लगा था। समय आगे बढ़ता गया और साथ में बढ़ता गया हैदर मस्तान का कद भी।
ईमानदारी इंसान को कहाँ से कहाँ तक ले जाती है
पोर्ट पर तस्करी करते हुए उसकी मुलाकात एक अरब तस्कर शेख मोहम्मद अलगाबी। हज के लिए जो लोग अरब देश जाते थे और वहाँ से जब वो सोना या कुछ ऐसा सामन लाते थे तो कस्टम के डर से वो सामान शेख मोहम्मद अलगाबी को दे देता था जिसे वो गैर क़ानूनी तरीके से पोर्ट से बाहर निकाल देता था। बदले में उसे पैसे मिलते थे। धीरे-धीरे काम करते हुए शेख मोहम्मद अलगाबी और हैदर मस्तान मिर्जा में गहरी दोस्ती हो गयी। एक बार ऐसे ही सोने का एक बड़ा खेप बम्बई पोर्ट पर उतरा। जिसे शेख मोहम्मद अलगाबी ने कुछ पेटियाँ हैदर मस्तान को दिया बाहर निकालने के लिए और कुछ वो खुद ही लेकर निकला। लेकिन निकलते वक्त शेख मोहम्मद अलगाबी पुलिस के गिरफ्त में आ गया और उसे जेल हो गयी। तीन साल के बाद जब वो जेल से बाहर निकला तो हैदर मस्तान मिर्जा ने शेख मोहम्मद अलगाबी को वो पेटियाँ वैसे ही लौटा दिया जैसा उसको मिला था। पेटियाँ खोली भी नहीं गयी थी। इस बात से शेख मोहम्मद अलगाबी बहुत इम्प्रेस हुआ और उसमें से आधा सोना हैदर मस्तान मिर्जा को दे दिया। बस यहीं से हैदर मस्तान मिर्जा का वक्त बदल गया।
मस्तान इसके बाद एक अच्छा सा घर लिया। लम्बी गाड़ी ली और स्मगलिंग वाले बिजनेस को पुरे ऑर्गेनाइज्ड ढंग से करना शुरू कर दिया। अब हैदर मस्तान मिर्जा मस्तान मिर्जा मस्तान भाई बन चुके थे। सफेद कपडा, सफ़ेद जूता और 555 ब्रांड का सिगरेट उसकी पहचान बन गया था। ऐसा नहीं है कि वो इस धंधा में अकेला था। दो और भी लोग थे जो इनके साथ काम कर रहे थे। वरदराजन मुदलियार और करीम लाला। लेकिन मस्तान का एथिक्स अलग था। वो ऐसा किसी भी सामान का स्मगलिंग नहीं करता था जिससे आम लोगों को परेशानी हो। मसलन ड्रग्स, शराब और हथियार। वो बस सोना और इलेक्ट्रॉनिक सामान पर ही अपना बिजनेस खड़ा किया था। वो खुद को समंदर का राजा कहता था। हथियार और शराब स्मगल नहीं करने की वजह से वरदराजन मुदलियार और करीम लाला उससे अलग हो गया और उनका अब खुद का गैंग जो गया। इस तरह से बम्बई में सत्तर के दशक में तीन गैंग एक्टिव हो चूका था।
अब शुरू हुआ गैंग बनाने का खेल
तीनों गैंग का अपना एरिया बंटा हुआ था जिसकी वजह से कोई भी गैंगवार नहीं होता था। सारा अपराध परदे के पीछे ही होता था जिससे आम लोगों को कोई तकलीफ नहीं होती थी। मस्तान मिर्जा कस्टम ऑफिसर और पुलिस वालों को भी महंगे-महंगे तोहफे देता रहता था जिसकी वजह से वो लोग भी अपना आँख बंद किये हुए था। अब मस्तान मिर्जा अपना दखल बॉलीवुड में भी देने लगा था। वो नामी फिल्म एक्टर और प्रोड्यूसर से संपर्क बनाने लगा और पैसे के दम पर यह ज्यादा मुश्किल भी नहीं था। आसानी से हो गया। अब आलम यह था कि दिलीप कुमार और संजीव कुमार जैसे हस्ती मस्तान मिर्जा के साथ बैठने लगे थे। पोलिटिकल रसूख भी अब कायम हो रहा था। किसी भी गलत काम को किस तरह से मैनेज किया जाता है यह मस्तान मिर्जा को बखूबी आता था। वो लोगों के इंसानी फितरत को तुरंत भांप लेता था। बिना गोली चलाये और बिना क़त्ल किये वो बम्बई का डॉन बन चूका था। बम्बई का पहला डॉन, जो बम्बई को अपनी महबूबा कहता था।
कहते हैं कि वो मधुबाला का दीवाना था। दोनों के बीच दोस्ती भी थी लेकिन रिश्ता नहीं बन पाया। इसके बाद मधुबाला जैसी दिखने वाली हीरोइन सोना से मस्तान ने शादी कर ली। सोना के लिए मस्तान में फिल्मों पर बहुत पैसे खर्च किए, पर उनकी फिल्में नहीं चल पाईं। दिलीप कुमार, अमिताभ, राजकपूर, धर्मेंद्र, फिरोज खान से मस्तान की दोस्ती के किस्से बंबई में आज भी सुनाई जाती है। ये रसूख इतना था कि मस्तान के कामों पर कोई उंगली नहीं उठाता था। सरकार के कामों के अलावा मस्तान के कामों को भी अलिखित कानून ही मान लिया गया था।
देश में लगी इमरजेंसी ने हाजी मस्तान का सोच बदल दिया
अब देश में राजनैतिक रूप से बदलने लगा था। साल 1975 आ गया था। देश में इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी थी। सरकार के खिलाफ बोलने वालों को जेल में डाला जाने लगा था। विद्रोही तो हैदर मस्तान भी था। लेकिन वो आज से पहले कभी भी जेल नहीं गया था। एक बार पुलिस ने उसे गिरफ्तार भी किया था तो उसे कोल्हापुर के एक गेस्ट हाउस में रखा था पुरे इंतजाम के साथ। फिर दो दिनों के बाद उसे छोड़ दिया गया था। लेकिन यह रसूख अब नहीं चलने वाला था। हालत बदल चुके थे। हाजी मस्तान को जेल में डाल दिया गया। वैसे तो जेल में बहुत सारे लोग जेल में थे पर मस्तान को वीआईपी इंतजाम दिया गया था। तमाम अफसरों को उसने महंगे उपहार दे रखे थे, वो किस दिन काम आते। लेकिन यहाँ से मस्तान की जिंदगी ने पलटी मारनी शुरू की। बम्बई के जेल में मस्तान की मुलाकात एक गांधीवादी इंसान से हुई। यह इंसान था जयप्रकाश नारायण। जेपी को पैसे और ताकत का चस्का नहीं था। लेकिन उस दौर में इस आदमी के दीवाने पुरे हिंदुस्तान में फैले हुए थे। जेपी से मिलने के बाद मस्तान को महसूस हुआ कि वो कितना छोटा शख्सियत का आदमी है। 18 महीने के बाद जब इमरजेंसी हटी और मस्तान जेल से बहार निकले तो वह अब जुर्म से नाता तोड़ चूका था।
किस्सा तो इस बात का भी है कि मस्तान ने इंदिरा गांधी को अपनी रिहाई के लिए बहुत सारे पैसों की पेशकश की थी। लेकिन किसी ने भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया। बम्बई में इमरजेंसी के दौरान मस्तान ने कई नेताओं को छुपने-भागने में मदद की थी। इसीलिए उसे तो छोड़ा जा ही नहीं सकता था। लेकिन इसका फायदा मिला जनता पार्टी की नई सरकार बनने के बाद। मस्तान पर किसी भी तरह का कोई केस नहीं चला। इसके बाद मस्तान हज यात्रा पर गया और जब वो वहां से लौटा तो लोग उसे हाजी मस्तान बुलाने लगे थे। यही हाजी मस्तान उनका नाम बनकर रह गया जो अब तक कायम है।
मुंबई, तस्करी और राजनीती – इंसान सबकुछ नहीं कर सकता
1980 में हाजी मस्तान ने राजनीति में कदम रखा। 1984 में महाराष्ट्र के ही एक दलित नेता जोगिंदर कावड़े के साथ मिलकर दलित-मुस्लिम सुरक्षा महासंघ नाम से पार्टी बना ली। यह अभी सुनने में दिलचस्प लगता है कि आजादी के वक्त का गैंगस्टर दलित-मुस्लिम की राजनीति कर रहा था। दिलीप कुमार खूब प्रचार करते थे इस पार्टी का। बंबई, कलकत्ता और मद्रास में इस पार्टी का प्रचार हुआ लेकिन राजनीति स्मगलिंग और फिल्मों से एकदम ही अलग क्षेत्र है। और तो और इसका नशा और तरीका भी अलग ही है। हाजी मस्तान की हर जगह से करारी हार हुई। उसके राजनितिक पार्टी को भी सफलता नहीं मिली।
हाजी मस्तान का उसका बिजनेस फिर भी बदस्तूर जारी रहा। उसके ऊपर कोई संगीन जुर्म जैसे रेप और मर्डर का आरोप नहीं था। और स्मगलिंग को वो अपराध नहीं मानता था। इसीलिए उसका वो धंधा लगातार चल रहा था। एक किस्सा बहुत मशहूर है कि एक कस्टम के अफसर ने जब हाजी मस्तान को परेशान कर दिया था। तब उसका ट्रांसफर करा दिया गया। जब वो अफसर जा रहा था, तो हाजी मस्तान एयरपोर्ट पहुंचा, प्लेन में चढ़ा और अफसर को गुडबाय बोल के आया। इस तरह का कद रखता था हाजी मस्तान। यह बिलकुल किसी फ़िल्मी सीन सा लगता है। अब हाजी मस्तान के साथ दाऊद इब्राहिम, अबू सलेम और छोटा राजन जैसे लोग भी जुड़ गया था। लेकिन वो हाजी मस्तान के छत्रछाया में ज्यादा दिन तक काम नहीं कर सका। वो इसीलिए कि मस्तान का एक जमीर था लेकिन दाऊद इब्राहिम, अबू सलेम और छोटा राजन जैसे नए लड़के अपना जमीर तक बेचने को तैयार हो गया था।
हाजी मस्तान की महबूबा को चाहने वाले और ज्यादा हो गए थे
दाऊद इब्राहिम गेंद के आने के बाद अब वैसी बम्बई नहीं रह गयी थी। हाजी मस्तान जिसे अपनी महबूबा कहता था वो अब उसके हाथ से फिसलने लगी था। नए लड़के कुछ भी करने को तैयार था। बम्बई में अब गैंगवार होने लगा था। दाऊद गैंग के साथ ही पठान गैंग और कई दूसरे गैंग भी एक्टिव हो रहा था। बम्बई की सड़कें अब खून से नहाने लगी थी। इसी देशविरोधी बातों का परिणाम था 1993 का बम्बई धमाका। दाऊद यह करके दुबई भाग गया और बाकी गैंग भी फ़िलहाल अंडरग्राउंड हो गया। दिल की बीमारी के वजह से 25 जून 1994 को हाजी मस्तान का देहांत हो गया।
हाजी मस्तान की तीन बेटियां हैं- कमरुनिसा, मेहरूनिसा और शमशाद। दो बंबई में और एक लंदन में रहती है। हाजी मस्तान ने एक बेटे को भी गोद लिया था जिसका नाम सुन्दर है। सुन्दर हिन्दू ही रहे, उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया। साथ ही हसीन मिर्जा नाम की उनकी एक और बेटी है जो यह क्लेम करती है कि वो हाजी मस्तान और सोना मिर्जा की बेटी है।
कुल मिलकर देखा जाए तो यह थी हाजी मस्तान की पूरी कहानी। कैसे एक इंसान में बिना बन्दुक उठाये लगभग दो दशक तक बंबई पर राज किया था। अपराध अच्छा या बुरा नहीं होता है। वो तो बस बुरा ही होता है। फर्क करता है अपराधी का इमेज। अपने इसी इमेज से हाजी मस्तान ने सबकुछ बनाया था।
हाजी मस्तान के लोकप्रियता को बॉलीवुड वालों ने भी खूब भुनाया। सबसे पहले तो साल 1975 में आयी अमिताभ बच्चन वाले दीवार फिल्म में अमिताभ का रोल हाजी मस्तान से प्रेरित बताया जाता है। कहा जाता है कि जब सलीम-जावेद इस फिल्म को लिख रहे थे तब वो कई बार हाजी मस्तान से भी मिले थे और उनके साथ अमिताभ बच्चन भी होते थे। इसीलिए वो इंटेंस आँखें जो दीवार में अमिताभ बच्चन ने दिखाई थी, उनकी पहचान बन गयी।
बॉलीवुड ने भी भुनाया हाजी मस्तान के लोकप्रियता को
साल 2010 में मिलान लुथरिया की फिल्म “वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई” में अजय देवगन का किरदार भी हाजी मस्तान से ही प्रेरित बताया जाता है। वही सफ़ेद कपड़े, वही सफ़ेद जुते, सिगरेट पीने का स्टाइल और वहीं इंटेंस आँखें। अमिताभ बच्चन और अजय देवगन दोनों ने ही हाजी मस्तान के किरदार को परदे पर जिया है।
लेटेस्ट अपडेट के लिए बेजोड़ जोड़ा के फेसबुक पेज को लाइक करें, ट्विटर पर फॉलो करें और हमारे वीडियो अपडेट्स के लिए यूट्यूब चैनल को सब्स्क्राइब जरूर करें।
वीडियो: कहानी छोटा राजन की, जिसे छोटा शकील ने दाऊद से अलग कर दिया
वीडियो: कहानी अरुण गवली की, जो बम्बई का पहला हिन्दू डॉन बना