मोहम्मद शहाबुद्दीन: जो लोगों को तेज़ाब से नहलाकर मारता था
बिहार एक ऐसी धरती है जो अपने अंदर अथाह और अविस्मरणीय इतिहासों को समेटे हुआ है। चाणक्या से लेकर सम्राट अशोक और फिर आर्यभट्ट जैसी हस्तियों का नाम बिहार की मिट्टी से ही तो जुड़ा हुआ है। सिखों के दशवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह का जन्म सत्रहवीं शताब्दी में यहीं पटना साहिब में ही तो हुआ था जिसे बिहार के लोग पटना सिटी के नाम से जानते हैं। वहाँ स्थित तख्त श्री पटना साहिब गुरुद्वारा उन्हीं के याद में महाराजा रंजीत सिंह ने अठारहवीं सदी में बनाया था। लेकिन यह इतिहास है। यह सब बीता हुआ कल है। इन सभी चीजों पर आपको गर्व करने का हक है। लेकिन कब तक? आज का बिहार अलग है और अलग हो चुका है अपने इस खूबसूरत इतिहास से। जहाँ एक तरफ बिहार देश को सबसे ज्यादा आईएस और आईपीएस देने वाले राज्यों में सबसे आगे है वहीं दूसरी तरफ है इसका राजनैतिक और आपराधिक समीकरण। बिहार में अपराध और राजनीति रेलवे लाइन की दो पटरियाँ है। और यह सबसे ज्यादा तेज तब भागी थी जब चल रहा था नब्बे का शुरूआती दशक। कई कहानियां है लेकिन सबसे पहले कहानी उस शख्स की होगी जो जीते जी अपने आप को भगवन मानने लगा था। अपने शहर के दुकानों में अपनी तस्वीरें लगवाता था। जो अपने आगे किसी की भी नहीं नहीं चलने देता था। उनके खिलाफ आवाज उठाने वालों को सीधा मौत का तोफहा दिया जाता था वो भी मिसाल बनाकर। किडनैपिंग, मर्डर और फिरौती जैसी अपराधों का दुसरा नाम बन गया था मोहम्मद शहाबुद्दीन। क्राइम स्टोरी के इस स्पेशल एपिसोड में आज जानेंगे डॉन शहाबुद्दीन के बारे में सबकुछ पूरी टाइमलाइन के साथ।
शहाबुद्दीन का बैकग्राउंड
मोहम्मद शहाबुद्दीन का जन्म 10 मई 1967 को बिहार में सिवान जिले के प्रतापपुर में एक संपन्न परिवार में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा वहीं से हुई और आगे की पढाई वो भीमराव आंबेडकर बिहार यूनिवर्सिटी, मुजफ्फरपुर से किया। उनके पास एक स्ट्रांग एजुकेशनल पोर्टफोलियो है। उनके पास पोलिटिकल साइंस में पीएचडी की डिग्री है। कॉलेज के दौरान ही उनके ऊपर पहला आपराधिक मामला दर्ज हुआ। अपराध था दबंगई और रंगबाजी का और वह साल था 1986। तब शहाबुद्दीन की उम्र सिर्फ 19 साल थी। शहाबुद्दीन की पत्नी का नाम हिना शहाब है। उनको एक बेटा और दो बेटी हैं। बेटा का नाम ओसामा है जो अभी इंग्लैंड में लॉ की पढाई कर रहा है। शहाबुद्दीन ने कॉलेज से ही अपराध और राजनीति की दुनिया में कदम रखा था।
राजनैतिक करियर की शुरुआत
राजनीतिक गलियारों में शहाबुद्दीन का नाम उस वक्त चर्चाओं में आया जब शहाबुद्दीन ने छात्रनेता से नेता बने लालू प्रसाद यादव की छत्रछाया में जनता दल की यूथ विंग में कदम रखा। राजनीति में सितारे बुलंद थे। पार्टी में आते ही शहाबुद्दीन को अपनी ताकत और दबंगई का फायदा मिला। पार्टी ने 1990 में विधान सभा का टिकट दिया। शहाबुद्दीन जनता दल के टिकट पर जिरादेई विधानसभा से पहली बार विधानसभा पहुंचे। उस वक्त उसकी उम्र थी मात्र 23 साल। जीरादेई इससे पहले देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद, ठग नटवरलाल और सिविल सर्विसेस टॉपर आमिर सुभानी के लिए जाना जाता था।
लेकिन अब एक और नाम इसमें जुड़ चुका था। यहाँ पर यह जानना बेहद जरूरी है कि विधायक बनने के लिए कम से कम 25 साल की उम्र होनी जरुरी है। यह हम नहीं, हमारा संविधान कहता है। साल 1995 में वह दोबारा इसी सीट से निर्वाचित हुए। इस दौरान उनका कद और बढ़ गया। शहाबुद्दीन की राजनैतिक ताकत को देखते हुए पार्टी ने 1996 में उन्हें सिवान सीट से लोकसभा का टिकट दिया और वो जीत गए। 1997 में राष्ट्रीय जनता दल के गठन और लालू प्रसाद यादव की सरकार बन जाने से शहाबुद्दीन की ताकत बहुत बढ़ गई थी।
जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष चंद्रशेखर उर्फ चंदू की हत्या में हाथ
मार्च 1997 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे चंद्रशेखर को सीवान में तब गोलियों से छलनी कर दिया गया था, जब वह भाकपा माले के एक कार्यक्रम के सिलसिले में नुक्कड़ सभा कर रहे थे। वो जगह था सिवान का जेपी चौक जहाँ पर यह हमला हुआ था। इस हमले में कई लोग शामिल थे जिसमें से शहाबुद्दीन के बेहद करीबी रहे रुस्तम मियां को सजा हो चुकी है।
अब सिवान में शुरू होता है जनता दरबार और एक समानांतर सरकार
अबतक शहाबुद्दीन का नामाकरण अलग तरीके से हो गया था। लोग अब उनको “साहब” कहकर बुलाने लगे थे। सामाजिक जीवन पर शहाबुद्दीन का प्रभाव तो पहले से ही पड़ना शुरू हो गया था। पर जैसे-जैसे सत्ता का संरक्षण मिलता गया, उनकी ताकत भी बढ़ती गयी। शहाबुद्दीन की अदालत काफी सुर्खियों में रही थी। 2000 के दशक तक सीवान जिले में शहाबुद्दीन एक समानांतर सरकार चला रहे थे। उनकी एक अपनी अदालत थी। जहां लोगों के फैसले हुआ करते थे।
वह खुद सीवान की जनता के पारिवारिक विवादों और भूमि विवादों का निपटारा करते थे। यहां तक के जिले के डॉक्टरों की परामर्श फीस भी वही तय किया करते थे। इसी दौरान उन्होंने फरमान जारी किया कि डॉक्टरों की फीस 50 रुपए होगी। कई घरों के वैवाहिक विवाद भी वह अपने तरीके से निपटाते थे। फरियादी उनके पास आते और वहां से तत्काल न्याय पाते। लोगों की माने तो “साहब” के यहाँ जो सबसे अधिक मामले निपटाए गए वो भूमि विवाद का ही था। कई बार तो ऐसा हुआ कि पीड़ित को पुलिस सलाह देती कि साहब के पास चले जाओ। यह सब अपने पुरे शबाब पर चलता रहा जो मीडिया की खूब सुर्खियाँ बटोर रहा था।
जब सिवान को बनाया अपना जागीर
शहाबुद्दीन ने फरमान जारी कर दिया था कि सिवान के हर दुकान में उनकी एक तस्वीर लगी होगी। अब शहर के हर दूकान से रंगदारी उनके पास पहुँचने लगी। डर का आलम यह था कि विरोध का एक भी लफ्ज़ कहीं से भी सुनने को नहीं मिलता था। गलती से अगर मिल भी जाए तो हमेशा के लिए उसको खामोश कर दिया जाता था। सिवान में रात के 8 बजने से पहले लोग घर में घुस जाते थे, कोई नई कार नहीं खरीदता था, कोई अपनी तनख्वाह किसी को नहीं बताता था, क्योंकि रंगदारी देनी पड़ेगी। शादी-विवाह का खर्च गुप्त होता था। घर के सभी लोग कमाने के लिए बाहर नहीं जाते थे, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो फिर रंगदारी देनी पड़ेगी।
अमीर लोग अपनी पुरानी राजदूत मोटरसाइकल से चलते और कम पैसे वाले पैदल। यह था 1990 से लेकर 2005 तक का सिवान और लालू राज का विकास मॉडल। और इस दौरान लगभग पुरे बिहार का विकास मॉडल कुछ इसी तरह का था। उस दौरान शहाबुद्दीन जैसा कोई नहीं था। बोलने में विनम्र। हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का सही तरीके से प्रयोग। चश्मे, महंगे कपड़े और स्टाइल। और फिर सबसे ऊपर लालू का आशीर्वाद।
पर इन्हीं अपराधों ने शहाबुद्दीन को जनाधार भी दिया। जनता इन छोटे-छोटे फायदों में इतना खो गई थी कि इसके अपराधों की तरफ ध्यान देना भूल गई। लेकिन यहाँ पर भूल जाना कहना गलत होगा। असलियत में डर और थोड़े से फायदे ने जनता का दिमाग ही बंद कर दिया था। लोगों ने देखना बंद कर दिया कि इन सभी के पीछे उनका कितना शोषण हो रहा है। वह क्या खो रहा है और उसका नेता इन सभी दिखावटी चीजों के आड़ में क्या-क्या कर रहा है। इसका नतीजा यह हुआ कि ये जीतता रहा। और राज करता रहा।
तेज़ाब कांड, शहाबुद्दीन का रुतबा और गिरफ्तारी
ये बात है 16 अगस्त 2004 की है। बिहार के एक जिले सीवान में चंद्रेश्वर प्रसाद उर्फ चंदा बाबू जो की पेशे से एक व्यावसायी हैं अपनी पत्नी, बेटी और चार बेटों के साथ इस जिले में रहा करते थे। चंदा बाबू की एक किराने और परचून की दुकान थी। दोनों दूकान पर उस दिन उनके दो लड़के सतीश और गिरीश बैठा हुआ था। उस दिन कुछ बदमाश दुकान पर रंगदारी मांगने आए उन्होंने सतीश से 2 लाख की रंगदारी मांगी सतीश ने 2 लाख देने से मना कर दिया तो उन्होंने सतीश के साथ मारपीट की उस वक्त सतीश का भाई भी वहीं खड़ा था। मारपीट के बाद सतीश घर गया और तेजाब लाकर उसने बदमाशों के ऊपर डाल दिया। फिर बाद में शहाबुद्दीन के गुंडों ने सतीश और गिरीश को तेज़ाब से नहलाकर मार डाला।
इसकी हिम्मत इतनी बढ़ गई कि पुलिस और सरकारी कर्मचारियों पर इसने खुलेआम हाथ उठाना शुरू कर दिया। मार्च 2001 में इसने एक पुलिस अफसर को थप्पड़ मार दिया। इसके बाद सीवान की पुलिस का होश ठिकाने आया। पुलिस ने एक दल बनाकर शहाबुद्दीन पर हमला कर दिया। गोलीबारी हुई और दो पुलिसवालों समेत आठ लोग मरे। लेकिन शहाबुद्दीन और उसके लोग पुलिस की तीन जीप को आग लगाकर भाग गया। उसके भागने के लिए उसके आदमियों ने पुलिस पर हजारों राउंड फायर कर दिया था।
1999 में इसने कम्युनिस्ट पार्टी के एक कार्यकर्ता छोटेलाल गुप्ता को किडनैप कर लिया था। उसका फिर कभी कुछ पता ही नहीं चला। इसी मामले में 2003 में शहाबुद्दीन को जेल जाना पड़ा। लेकिन यह लालू का बिहार था और शहाबुद्दीन यहाँ पर जेल के नाम पर हॉस्पिटल में रहता था। वहीं पर अपनी जनता दरबार लगाता। पुलिस से लेकर व्यवसायी तक इस आदमी से मदद मांगने आता। इसके जेल जाने के आठ महीने बाद 2004 में लोकसभा चुनाव था। सिवान में उसका यह खौफ था कि इसे चुनाव प्रचार करने की जरूरत नहीं पड़ी। जीत गया। ओमप्रकाश यादव निर्दलीय इसके खिलाफ खड़े हुए थे। वोट भी लाये मगर चुनाव हार गया। चुनाव खत्म होने के बाद उनके आठ कार्यकर्ताओं का मर्डर हो गया।
2005 में सीवान के डीएम सी के अनिल और एसपी रत्न संजय ने शहाबुद्दीन को सीवान जिले से गुप्त रूप से उठाया। फिर इसके घर पर रेड पड़ी।
पाकिस्तान में बने हथियार एके-47, गोलियां और बम मिले साथ ही इसके पास नाईट-विजन ग्लास, लेजर गाइडेड गन्स समेत कुछ ऐसे हथियार थे जिसे आर्मी के इस्तेमाल के लिए बनाया जाता है। और इन सभी उपकरणों पर पाकिस्तान ऑर्डिनेंस फैक्ट्री कि मुहर लगी हुई थी। ये भी सबूत मिले कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI और उसके टॉप ऑफिसर से इसके संबंध हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इससे पूछा था कि सांसद होने के नाते तुम्हें वैसे हथियारों की जरूरत क्यों है जो सिर्फ आर्मी के पास हैं, सीआरपीएफ और पुलिस के पास भी नहीं हैं। और फिर उसके पास कोई उत्तर नहीं था।
छापेमारी के बाद बिहार के पूर्व डीजीपी डीपी ओझा ने अपने कार्यकाल के दौरान शहाबुद्दीन के आईएसआई से लिंक होने के सम्बन्ध में 100 पेज कि रिपोर्ट सौंपी थी। लेकिन उसके बाद तात्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और उसकी सरकार ने ओझा को उसके पद से हटा दिया था। जाहिर सी बात है, अपने ही घर में कौन आग लगाना चाहेगा।
इसको जेल जाना पड़ा। वो पुलिस के लिए आसान नहीं रहा। ऑर्डर निकलने के तीन महीने बाद तक ये दिल्ली के अपने आवास में रहता था। बिहार और दिल्ली पुलिस की टुकड़ी जाती, वापस चली आती। एक दिन बिहार पुलिस का एक दस्ता गया। बिना किसी को बताये। और इसको उठा लिया गया।
जेलर को मिली खुलेआम धमकी
वह साल था 2006। शहाबुद्दीन को आजीवन कारावास कि सजा हो गयी थी और वह दिल्ली के एम्स में अपना इलाज करवा रहा था। उसी दौरान जब उसके कुछ समर्थकों को पटना के बेउर जेल के असिस्टेंट जेलर वशिष्ठ राय ने अंदर नहीं जाने दिया तब शहाबुद्दीन ने सबसे सामने ही उनको बोला कि: बहुत दिनों से तुमलोगों कि पिटाई नहीं हुई है। बेल होने दो, पीट कर रख देंगे।
उसी के अगले दिन उसने जेलर संजीव कुमार को भी धमकी दिया: तड़पा-तड़पा कर मारेंगे।
जेल के अंदर भी रंगदारी करता रहा शहाबुद्दीन
यह जेल तो गया लेकिन इसका घमंड कम नहीं हुआ। सुनवाई पर इसका वकील जज को भी धमकी दे आता था। और फिर एक बार तो जज ने भी अपना ट्रांसफर करवा लिया था। साल 2007 में कम्युनिस्ट पार्टी के ऑफिस में तोड़-फोड़ करने के आरोप में इसको दो साल की सजा हुई। फिर कम्युनिस्ट पार्टी के वर्कर की हत्या में इसे आजीवन कारावास की सजा हुई। अब लालू यादव राजनीति से बाहर हो चुका था और शहाबुद्दीन के पास कोई राजनैतिक पावर नहीं था।
अब बिहार की राजनीति में ये बहुत पीछे चला गया। लेकिन सीवान में उसका दबंगई जारी था। वहाँ पर जेल से ही इसके फैसले सुनाये जाते। कहते हैं कि जेल इसके लिए बस नाम भर की थी। सारे इंतजाम रहते। जब कोई हत्या या फिर अपराध हो जाती थी तो जेल में रेड पड़ती। एक ऑफिसर की माने तो शहाबुद्दीन हमेशा मुस्कुराता रहता और चुपचाप जेब से निकालकर मोबाइल फोन पुलिस के हाथ में दे देता।
जिसको दौड़ा-दौड़ा कर मारा, उसी ने चुनाव में हराया
ओम प्रकाश यादव जब साल 2004 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय खड़ा हुआ था तब शहाबुद्दीन के गुंडों ने उन्हें सड़क पर दौड़ा कर मारा था। हालाँकि वह किसी तरफ अपनी जान बचाकर भागने में कामयाब हो गए थे। फिर साल 2009 के लोकसभा चुनाव के समय जब शहाबुद्दीन के चुनाव लड़ने पर सुप्रीम कोर्ट ने बैन लगा दिया तब सिवान से उसकी पत्नी हीना शहाब मैदान में आयी और हार गयी। यही सिलसिला साल 2014 और 2019 में भी दोहराया। क्योंकि अब जनता जागरूक हो गयी है।
ग्यारह साल बाद जमानत और फिर से जेल
11 सितम्बर 2016 को ग्यारह साल जेल में रहने के बाद शहाबुद्दीन को भागलपुर सेन्ट्रल जेल से जमानत पर रिहा किया गया। 1300 गाड़ियों का काफिला लेकर जेल से चले शहाबुद्दीन। काफिला गुजर रहा था, टोल टैक्स वाले साइड में खड़े थे। उसी में कितने सारे और लोग भी पार हो गए। समर्थकों का नारा बिना रुके हुए चल रहा था – वीर शहाबु मत घबराना, तेरे पीछे सारा जमाना। यहाँ पर यह भी जानना जरुरी है कि शहाबुद्दीन के जेल से आने से लगभग छः महीने पहले 13 मई 2016 को सिवान में एक पत्रकार राजदेव रंजन कि गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। इसमें भी शहाबुद्दीन का ही नाम सामने आया था।
एक हिस्ट्रीशीटर अपराधी शहाबुद्दीन जेल से छूटता है और जनता उसके लिए जय-जयकार करती है। हिस्ट्रीशीटर अपराधी उसको कहते हैं जिसे पुलिस ने यह डिक्लेयर कर दिया है कि इसमें अब सुधार कि कोई भी गुंजाइश नहीं है। जेल से बाहर आते ही उसका पहला बयान आता है कि प्रदेश का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ‘परिस्थितियों का नेता’ है। लालू प्रसाद यादव मेरा नेता है और रहेंगे।
क्योंकि इसी मुख्यमंत्री ने 11 साल पहले शहाबुद्दीन को जेल भिजवाया था। और तब परिस्थितियां ऐसी थी कि शहाबुद्दीन के नेता लालू प्रसाद यादव के समर्थन से नीतीश मुख्यमंत्री बने हुए थे। शहाबुद्दीन का जेल से छूटना कोई आश्चर्यचकित करने वाली घटना नहीं थी। लालू की पार्टी के सत्ता में आते ही यह चर्चा शुरू हो गया था क्योंकि लालू यादव के जंगल राज में शहाबुद्दीन जैसा गुंडा ही तो वोट बटोरता था। सिर्फ एक महीने के भीतर ही 30 सितम्बर 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने उसका जमानत कैंसिल कर दिया और आदेश दिया कि शहाबुद्दीन को अब बिहार के सिवान जेल से दिल्ली के तिहाड़ जेल में शिफ्ट किया जाए। अभी शहाबुद्दीन दिल्ली के तिहाड़ जेल में अपनी आजीवन कारावास की सजा काट रहा है।
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