डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग जूनियर की सम्पूर्ण जीवनी
डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग जूनियर. यह नाम कोई आम नाम नहीं है जिसे बस सुन लिया और भूल गए. यह एक ऐसा नाम है जिसे हम अपने जीवन में उतारकर अपने आप को और बेहतर बना सकते हैं. यह कोई थ्योरी या बस कहने भर की बात नहीं है. यह एक प्रैक्टिकल जीवन है जिसे जीना उतना मुश्किल भी नहीं है. 15 जनवरी 1929 को अमेरिका के एटलांटा में जन्मे मार्टिन लूथर किंग जूनियर के पिता का नाम मार्टिन लूथर किंग सीनियर और माता का नाम अल्बर्टा विलियम्स किंग था. ये उसी अफ़्रीकी मूल के निवासी के वंशज है जो दशकों तक दक्षिणी अमेरिका में बंधुआ मज़दूर बनके काम करते रहे.
बस एक यही एक शब्द “बंधुआ मज़दूर” जो था उसे अमेरिकी ख़तम नहीं करना चाहते थे. वो चाहते थे कि ये अफ़्रीकी हमेशा ऐसे ही रहें. ऐसे ही कहने का मतलब ये है कि उसे किसी भी प्रकार के कोई राइट्स ना मिले. ना बराबरी का अधिकार, ना वोटिंग का अधिकार और ना ही वो सभी अधिकार जो आम अमेरिकी के पास था. ये अमेरिका में तो रहे लेकिन मेरे बराबर ना रहे. मार्टिन लूथर किंग जूनियर बहुत ही ब्राइट स्टूडेंट थे. वो बहुत अच्छे स्टूडेंट होने के साथ साथ बहुत अच्छे वक्ता भी थे. उनके अंदर वो क्षमता थी जो अपनी बातों से सामने वाले के दिल पर राज करने लगता था. और सब कहते हैं कि उनमें यह चीज गॉड गिफ्टेड थी.
डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग जूनियर का कैरियर
आगे चलकर वो राजनीति में कदम रखे और संयुक्त राज्य अमेरिका में नीग्रो समुदाय के प्रति होने वाले भेदभाव के विरुद्ध सफल अहिंसात्मक आंदोलन का संचालन किया। सन् 1955 का वर्ष उनके जीवन का निर्णायक मोड़ था। इसी वर्ष कोरेटा स्कॉट से उनका विवाह हुआ, उनको अमेरिका के दक्षिणी राज्य अल्बामा के मांटगोमरी शहर में डेक्सटर एवेन्यू बॅपटिस्ट चर्च में प्रवचन देने बुलाया गया. इसी वर्ष मॉटगोमरी की सार्वजनिक बसों में काले-गोरे के भेद के विरुद्ध एक महिला श्रीमती रोज पार्क्स ने गिरफ्तारी दी। दरअसल तब अमेरिका का कानून यह था कि जब कोई अफ्रीकी मूल यानी की काले लोग जब बस में सीट पर बैठे हो और अगर कोई गोरा अमेरिकी आए तो उसे सीट छोड़ कर खड़ा होना पड़ता था. रोज पार्क्स ने इसी का विरोध किया और वो अपने जगह से कड़ी नहीं हुई. जिसके बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद ही डॉ॰ किंग ने प्रसिद्ध बस आंदोलन चलाया।
पूरे 381 दिनों तक चले इस सत्याग्रही आंदोलन के बाद अमेरिकी बसों में काले-गोरे यात्रियों के लिए अलग-अलग सीटें रखने का प्रावधान खत्म कर दिया गया। बाद में उन्होंने धार्मिक नेताओं की मदद से समान नागरिक कानून आंदोलन अमेरिका के उत्तरी भाग में भी फैलाया। उन्हें सन् 1964 में विश्व शांति के लिए सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। कई अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियां दीं। धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं ने उन्हें मेडल प्रदान किए। अमेरिका की प्रसिद्ध ‘टाइम’ मैगजीन ने उन्हें 1963 का ‘मैन ऑफ द इयर’ चुना। वे गांधीजी के अहिंसक आंदोलन से बेहद प्रभावित थे। गांधीजी के आदर्शों पर चलकर ही डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अमेरिका में इतना सफल आंदोलन चलाया, जिसे अधिकांश गोरों का भी समर्थन मिला। साथ ही तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी का भी समर्थन उन्हें प्राप्त था.
साल 1959 में उन्होंने भारत की यात्रा की। डॉ॰ किंग ने अखबारों में कई आलेख लिखे। ‘स्ट्राइड टुवर्ड फ्रीडम (Stride Towards Freedom)’ (1958) तथा ‘व्हाय वी कैन नॉट वेट (Why We Can Not Wait’ (1964) उनकी लिखी दो पुस्तकें हैं। साल 1957 में उन्होंने साउथ क्रिश्चियन लीडरशिप कॉन्फ्रेंस की स्थापना की। उन्हें अमेरिका का गांधी भी कहा जाता है। उनके प्रयत्नों से अमेरिका में नागरिक अधिकारों के क्षेत्र में प्रगति हुई; इसलिये उन्हें आज मानव अधिकारों के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। दो चर्चों ने उनको सन्त के रूप में भी मान्यता प्रदान की है।
मार्टिन लूथर किंग जूनियर के द्वारा चलाये गए मुख्य नागरिक अधिकार आन्दोलन
मोंटगोमरी बस बॉयकोट (Montgomery Bus Boycott, 1955) – मार्टिन लूथर किंग जूनियर को 1954 में, मोंटगोमरी, अलबामा में डेक्सटर एवेन्यू बैपटिस्ट चर्च का एक विधिवत पादरी बनाया गया था. 1955 में मोंटगोमरी की सार्वजनिक बसों में काले-गोरे के भेद के विरुद्ध एक महिला रोज पार्क्स ने गिरफ्तारी दी. इसके बाद दिसम्बर 1955 में डॉ किंग ने प्रसिद्ध बस आंदोलन नेतृत्व किया. अभियान के दौरान उनको फोन धमकियाँ मिली. स्थिति बहुत भयावह हो गयी, किंग को गिरफ्तार कर लिया और उनके घर पर बमबारी की गई. अंत में इस अभियान में सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और सार्वजनिक परिवहन में नस्लीय भेदभाव को गैरकानूनी बताया. आखिरकार, मोंटगोमरी सार्वजनिक बसों में रंगभेद को दूर करके उसका परिचालन शुरू कर दिया. इस प्रकार पूरे 381 दिनों तक चले इस सत्याग्रही आंदोलन के बाद अमेरिकी बसों में काले-गोरे यात्रियों के लिए अलग-अलग सीटें रखने का प्रावधान खत्म हो गया. मार्टिन लूथर किंग जूनियर, बस बहिष्कार आन्दोलन की सफलता के बाद नागरिक अधिकारों के एक प्रमुख नेता के रूप में उभरे.
दक्षिणी ईसाई नेतृत्व सम्मेलन (Southern Christian Leadership Conference) – साल 1957 में, मार्टिन लूथर किंग जूनियर को दक्षिणी ईसाई नेतृत्व सम्मेलन के अध्यक्ष (SCLC) निर्वाचित हुए. इस समूह का उद्देश्य नैतिक अधिकार का उपयोग कर और काले लोगों के चर्चों की शक्ति को संगठित करके नागरिक अधिकारों के सुधार आन्दोलन के हित में अहिंसक विरोध प्रदर्शन का संचालन करना था. उन्होंने SCLC के लिए आदर्शों को ईसाई शिक्षण से लिया, और महात्मा गांधी के अहिंसक आन्दोलन चलाने की तकनीक व साथ ही साथ हेनरी डेविड थोरो के विचारों को अपनाया.
बर्मिंघम अभियान (1963) – साल 1959 में, मार्टिन लूथर किंग जूनियर अपने पिता के चर्च के सह-पादरी का कार्यभार संभालने के लिए अटलांटा गए. फिर वो मतदान का अधिकार, रंगभेद, श्रम अधिकार और अन्य बुनियादी नागरिक अधिकार के लिए 1963 में अलबामा में बर्मिंघम अभियान सहित कई विरोध, प्रदर्शनों और जुलूस आयोजित किये. अलबामा में बर्मिंघम अभियान तो दो महीने तक तक चला. इसके अलावा, मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने 1968 तक सेंट अगस्टीन, फ्लोरिडा (1964), सेल्मा, अलबामा (1965) आदि कई अभियानों का भी नेतृत्व किया. इस अवधि के दौरान किंग को कई बार गिरफ्तार कर लिया किया गया था. एफबीआई के निदेशक जे एडगर हूवर की गुप्त निगरानी में भी मार्टिन लूथर रखा, ताकि आंदोलन के पीछे किसी भी होने वाले साजिश को रोका जा सके.
वाशिंगटन मार्च 1963 – एक महान मार्च, वाशिंगटन डीसी में, मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व में किया गया था. 28 अगस्त, 1963 के मार्च में पब्लिक स्कूलों और रोजगार में नस्लीय भेदभाव पर रोक लगाने सहित विचारशील नागरिक अधिकार कानून में नस्लीय अलगाव की विधिवत अंत करने मांग की. विरोध प्रदर्शन में सभी श्रमिकों के लिए नागरिक अधिकारों के संरक्षण और 2 डॉलर न्यूनतम मजदूरी की जरूरत को भी रखा गया. वाशिंगटन डीसी के लिए एक स्वशासन की स्थापना की भी मार्च में मांग की गई थी. मार्च सफल साबित हुआ और लिंकन स्मारक पर मार्टिन लूथर किंग के 20वीं महानतम भाषण “आई हेव ए ड्रीम” के साथ संपन्न हुआ. यह भाषण अब एक ऐतिहासिक भाषण का रूप ले चूका है.
शिकागो यात्रा – दक्षिण में, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, राल्फ अबर्नथी के साथ में सफल अभियान और विरोध प्रदर्शन तथा नागरिक अधिकार संगठनों के कुछ सदस्यों साथ श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रमों के बाद, शिकागो की यात्रा की. यह यात्रा उत्तर में नागरिक अधिकार गतिविधियों के प्रसार के उद्देश्य से की गयी थी. किंग और राल्फ उन क्षेत्रों में रहने वाले गरीब लोगों को समर्थन देने और सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए शिकागो के पश्चिम में नार्थ लौन्डाले की मलिन बस्तियों में गए. उत्तर में स्थिति बुरी थी, भ्रष्ट राजनीति और हिंसा की धमकियां तेज होने के कारण राल्फ और किंग दोनों अंततः वापस दक्षिण में लौटे गए.
वियतनाम युद्ध – मार्टिन लूथर किंग, जूनियर, राष्ट्रपति जॉनसन प्रशासन और नागरिक अधिकारों के एजेंडे के अपने समर्थन से अलगाव की भावना पैदा होने के डर से वियतनाम युद्ध पर बोलने कतरा रहे थे. सबसे पहले मुहम्मद अली ने ही वियतनाम युद्ध की बहुत कड़े शब्दों आलोचना की, जिससे किंग बहुत प्रेरित हुए. उसके बाद, किंग ने पहली बार वियतनाम विरुद्ध आवाज उठाना शुरू किया. मार्टिन लूथर किंग को वियतनाम युद्ध में अमेरिका की भूमिका पर शक तो पहले से ही था. ‘बियोंड वियतनाम’ नामक अपने भाषण में, किंग भी युद्ध में अमेरिका की भागीदारी के बारे में अपने संदेह व्यक्त को किया. उन्होंने वियतनाम युद्ध का विरोध किया, क्योंकि यह धन और संसाधनों का व्यर्थ उपयोग हो रहा था. इनका इस्तेमाल, गरीब लोगों के कल्याण के लिए खर्च करके किया किया जा सकता था.
आत्महत्या कि कोशिश क्यों की थी मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने?
बात उस समय की है जब वो अपने स्कूल में पढ़ते थे. उनके पिताजी चर्च में पादरी थे और वो अधिकतर समय चर्च में ही बिताते थे. माताजी भी ज्यादातर समय घर से बाहर ही रहती थी. ऐसे में उनकी बीमार दादी को देखने को लिए उनके पिता ने उसे कहा कि तुम दादी के साथ ही रहना और उनका ख्याल रखना. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और मार्टिन लूथर किंग जूनियर किसी दूसरे काम में व्यस्त हो गए. वो इतना मशगूल हो गए थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि उन्हें अपनी दादी का ख्याल भी रखना है. बीमार दादी को हार्ट अटैक आया और वो दुनिया से चल बसी. अब मार्टिन लूथर किंग जूनियर को ये लगने लगा कि उनके दादी कि मौत के जिम्मेदार वो खुद हैं. वो बहुत ही निराश रहने लगे और धीरे-धीरे अवसाद में चले गए. इतना कि एक बार वो अपने दोमंजिले घर कि बालकनी से छलांग लगा दिए. हांलाकि वो अपने मकसद में कामयाब तो नहीं हुए, लेकिन अपने हाथ-पैर ज़रूर तुड़वा लिए. फिर घरवालों ने उन्हें समझाया कि जो होना था वो तो हो गया. आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं है.
उनको मिलने वाले सम्मान और उपाधियों की फेहरिस्त भी काफी लम्बी है
1957 – The Russwurm Award from the National Newspaper Publishers
1958 – The Second Annual Achievement – The Guardian Association of the Police Department of New York
1963 – Man of the Year 1963, by ‘Time’ magazine
1963 – American of the Decade by Laundry, Dry Cleaning, and Die Workers International Union
1964 – The John Dewey Award, from the United Federation of Teachers
1964 – The John F. Kennedy Award, from the Catholic Interracial Council of Chicago
1964 – Nobel Peace Prize
1965 – Spingarn Medal from the NAACP
1968 – The Marcus Garvey Prize for Human Rights, presented by the Jamaican Government
1968 – The Rosa L. Parks Award, presented by the Southern Christian Leadership Conference
1977 – Presidential Medal of Freedom (मरणोपरांत)
डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या
इस तरह के आंदोलनकारी अपने साथ होने वाले घटनाओं की फ़िक्र नहीं करते हैं. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के साथ भी ऐसा ही कुछ था. हांलाकि उनको उनके आंदोलन के लिए धमकियां तो मिलती ही रहती थी और एक-दो बार उनपर हमला भी किया गया था. लेकिन 4 अप्रैल 1968 का दिन आम दिनों के जैसा नहीं था. इस दिन जब वे अपने होटल के कमरे की बालकनी में खड़े थे, तब एक स्लीपर ने उन्हें गोली मार दिया था. मौके पर ही डॉ. की मौत हो गयी. किंग की मृत्यु से पुरे अमेरिका में सदमें की लहर दौड़ गई, और देश भर के शहरों में दंगे भड़क गए. तब संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति – जॉनसन, ने उनके सम्मान में राष्ट्रीय शोक दिवस घोषित किया.
आज डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके विचार हमें हमेशा प्रेरित करते रहेंगे. डॉ॰ किंग की प्रिय पंक्ति थी –
“हम वह नहीं हैं, जो हमें होना चाहिए और हम वह नहीं हैं, जो होने वाले हैं, लेकिन खुदा का शुक्र है कि हम वह भी नहीं हैं, जो हम थे।”
वीडियो: डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग जूनियर की सम्पूर्ण जीवनी
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