फिल्म रिव्यू: अंधाधुन
बहुत दिनों बाद ऐसी फिल्म आयी है जिसका रिव्यू लिखने में मज़ा आने वाला है. या फिर यों कहें कि लोगों को देखने में ज्यादा मज़ा आनेवाला है. खासकर उनको जो क्राइम थ्रिलर देखना पसंद करते हैं. अगर इस फिल्म के पोस्टर, ट्रेलर और प्रोमो को देखकर ऋतिक रोशन की फिल्म काबिल की याद आ रही है तो रुकिए. . .!! ये काबिल नहीं अंधाधुन है जो की बिलकुल ही डिफरेंट जॉनर की फिल्म है. क्यों है, कैसे है और किसलिए है ये बात हम आगे बता रहे हैं ना. . .
सबसे पहले कहानी की बात कर लेते हैं
फिल्म की कहानी पुणे शहर में बेस्ड है. आकाश (आयुष्मान खुराना) एक पियानो प्लेयर है और आगे चलकर खूब नाम कमाना चाहता है. उसे लगता है की जो लोग फिजिकली डिसेबल होते हैं उनकी म्यूजिक सेन्स काफी अच्छी होती है. इसलिए वो अँधा होने का नाटक करने लगता है. नाटक भी ऐसा की लोग उसे सच में अँधा ही समझने लगता है. लेकिन उसी के बगल में एक 5-6 साल का बच्चा है बंटू, जिसे लगता है कि आकाश झूठ बोल रहा है और वो सबकुछ देख सकता है. इसके लिए वो अपनी ओर से काफी कोशिश भी करता है कि आकाश की पोल खोल सके.
एक दिन रास्ते में एक एक्सीडेंट के सिलसिले में उसकी मुलाकात सोफी (राधिका आप्टे) से हो जाती है. सोफी को उनका पियानो बजाना काफी अच्छा लगता है और वो उसे अपने पापा के बार में नौकरी दे देती है. यहाँ पर आकाश की मुलाकात होती है गुजरे जमाने के फिल्मस्टार प्रमोद सिन्हा (अनिल धवन) से, आकाश प्रमोद को अच्छे लगते हैं तो वो अपने मैरेज एनिवर्सरी पर आकाश को प्राइवेट कंसर्ट के लिए अपने घर पर बुलाते हैं. आकाश जब वहाँ जाता है तो वह देखता है की प्रमोद का मर्डर हो गया है और यह मर्डर प्रमोद की पत्नी सिमी (तब्बू) ने अपने पुलिस बॉयफ्रेंड मनोहर (मानव विज) के साथ मिलकर की है.
अब आकाश इस उधेड़बुन में फँस गया है कि वो करे तो क्या करे. तभी उसे कुछ साथी मिलते है और वो यह शहर छोड़कर जाना चाहता है लेकिन सिमी काफी डर गयी है और वो कुछ भी रिस्क लेने को तैयार नहीं है. कहानी आगे बढ़ती जाती है, एक के बाद एक मर्डर होते चला जाता है और इन सब झमेले में ऐसा कुछ होता है की आकाश सच में अँधा हो जाता है और वो अब बिलकुल भी नहीं देख सकता है. अब आकाश का क्या होता है, सारे मर्डर्स कौन करते हैं और सोफी कहाँ जाती है, इसी की कहानी है अंधाधुन.
(नोट - इसमें स्पॉइलर कुछ भी नहीं है, ये एक जनरल स्टोरीलाइन है.)
लेखन - निर्देशन - मेकिंग
इस फिल्म के लिए जिसे पहला थैंक यू मिलना चाहिए वो हैं इसके राईटर. इस फिल्म को ४ लेखकों ने मिलकर लिखा है - श्रीराम राघवन, अरिजीत बिस्वास, पूजा लढ्ढा सुरती और योगेश चांदेकर. फिल्म मेकिंग के तीन डिपार्टमेंट - लेखक, निर्देशक और एडिटर. तीनों का सौ प्रतिशत काम परदे पर बखूबी दिखता है. राइटिंग टीम में से ही बाकि नाम भी है. निर्देशन श्रीराम राघवन का और एडिटिंग पूजा लढ्ढा सुरती का. फिल्म अपने स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती जाती है और आप हमेशा ये सोचते हैं की अब क्या होगा. अब क्या होगा वाला मोमेंट आपको पूरी फिल्म के दैरान मिलता ही रहता है जो की फिल्म की सबसे बड़ी पूँजी है.
सेकण्ड हाफ में क्लाईमैक्स से थोड़ा पहले फिल्म बिखड़ती हुई लगती है, लेकिन जैसे ही फिल्म क्लाईमैक्स तक पहुँचता है सबकुछ साफ़ हो जाता है. आप एक थ्रिलर फिल्म को देखने जाने से पहले जितने भी अरमान संजोये होते हैं वो सब आपको मिल जाता है. के.यू. मोहनन का सिनेमैटोग्राफी को यहाँ बेहतर इसीलिए कहना होगा क्योंकि कैमरा ने बस उतने ही पोर्शन को शूट किया है जितने की ज़रूरत थी. मसाला फिल्म जैसी भड़काव और उबाऊ लोकेशंस को पास फटकने भी नहीं दिया जाता है. ट्रीटमेंट के लिहाज से फिल्म बेहतरीन है.
अभिनय
नया चेहरा एक भी नहीं. सब सके सब अपने काम में पारंगत. आयुष्मान खुराना काफी मेहनत कर रहे हैं. जिसका नतीजा यह है की उनकी फिल्मोग्राफी काफी मज़बूत हो रही है. इस किरदार के लिए उन्हें खासी मेहनत करनी पड़ी है. आयुष्मान दो महीने तक पियानो बजाने की ट्रेनिंग ली है अक्षय वर्मा से. अक्षय एक पियानिस्ट है और अमेरिका में रहते हैं. क्योंकि वो देखता तो सब है लेकिन एक्टिंग अंधे की करनी है, जो निश्चित तौर पर आसान कतई नहीं है. एक लेयर्ड किरदार के हिसाब से हाव-भाव और बॉडी लैंग्वेज से परफेक्ट लगे हैं. तब्बू के किरादर में लेयर नहीं था, लेकिन जो था वो बहुत ही कुशलता के साथ किया गया है. राधिका आप्टे चौंकाती नहीं है. दो बातें है - पहली ये की वो खुद पुणे शहर की है तो उन्हें पुणेरी जैसा दिखने और बोलने के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं चाहिए थी. और दूसरी बात ये की को एक कमाल की एक्ट्रेस है. सबकुछ नैचुरल सा लगता है.
साथ में ज़ाकिर हुसैन, मानव विज, आश्विनी कालसेकर, अनिल धवन और छाया कदम का भी अच्छा साथ मिला है. अच्छी और सबसे बड़ी चीज इस फिल्म के लिए यह है की इतने सारे इंटेंस एक्टिंग एक साथ देखने को मिल जाते हैं.
गीत - संगीत
जैसे - जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है, फिल्म के गीत कहानी में घुलते जाते है. ठीक वैसे ही जैसे पानी में चीनी. कहानी के पैमाने से म्यूजिक कभी भी छलकती हुई नहीं लगती है और यहीं पर पीने वाले का मज़ा दुगुना हो जाता है. फिल्म के गीत लिखे हैं जयदीप साहनी, रफ़्तार और गिरीश नाकोड ने वहीं संगीत है अमित त्रिवेदी, रफ़्तार और गिरीश नाकोड का. नैना दा क्या कसूर ज़रूर फिल्म का चार्टबस्टर गीत है लेकिन बाकी गीत भी कदमताल करते हुए चलती है.
और अंत में: आगे ऐसी थ्रिलर फिल्म कब आएगी पता नहीं, इसीलिए इसे देखना बहुत ज़रूरी है अच्छे मनोरंजन के लिए. सस्पेंस फिल्मों के दीवाने के लिए यह फिल्म एक ट्रीट है. बाकि रेगुलर ऑडियंस भी इस फिल्म को बाकी फिल्मों से ज्यादा एन्जॉय करेंगे. ऐसा मुझे लगता है. . .