Kshamadan story in Hindi by leo Tolstoy

कहानी – क्षमादान

दिल्ली नगर में भागीरथ नाम का युवक सौदागर रहता था। वहां उसकी अपनी दो दुकानें और एक रहने का मकान था। वह सुन्दर था। उसके बाल कोमल, चमकीले और घुंघराले थे। वह हंसोड़ और गाने का बड़ा परेमी था। युवावस्था में उसे मद्य पीने की बान पड़ गई थी। अधिक पी जाने पर कभीकभी हल्ला भी मचाया करता था, परन्तु विवाह कर लेने पर मद्य पीना छोड़ दिया था।

गरमी में एक समय वह कुम्भ पर गंगा जाने को तैयार हो, अपने बच्चों और स्त्री से विदा मांगने आया।

स्त्री—पराणनाथ, आज न जाइए, मैंने बुरा सपना देखा है।

भागीरथ—पिरये, तुम्हें भय है कि मैं मेले में जाकर तुम्हें भूल जाऊंगा ?

स्त्री—यह तो मैं नहीं जानती कि मैं क्यों डरती हूं, केवल इतना जानती हूं कि मैंने बुरा स्वप्न देखा है। मैंने देखा है कि जब तुम घर लौटे हो तो तुम्हारे बाल श्वेत हो गए हैं।

भागीरथ—यह तो सगुन है। देख लेना मैं सारा माल बेच, मेले से तुम्हारे लिए अच्छी—अच्छी चीजें लाऊंगा।

यह कह गाड़ी पर बैठ, वह चल दिया। आधी दूर जाकर उसे एक सौदागर मिला, जिससे उसकी जानपहचान थी। वे दोनों रात को एक ही सराय में ठहरे। संध्या समय भोजन कर पास की कोठरियों में सो गए।

भागीरथ को सबेरे जाग उठने का अभ्यास था। उसने यह विचार करके कि ठंडेठंडे राह चलना सुगम होगा, मुंहअंधेरे उठ, गाड़ी तैयार करायी और भटियारे के दाम चुकाकर चलता बना। पच्चीस कोस जाने पर घोड़ों को आराम देने के लिए एक सराय में ठहरा और आंगन में बैठकर सितार बजाने लगा।

अचानक एक गाड़ी आयी—पुलिस का एक कर्मचारी और दो सिपाही उतरे। कर्मचारी उसके समीप आकर पूछने लगा कि तुम कौन हो और कहां से आये हो ? वह सबकुछ बतलाकर बोला कि आइए, भोजन कीजिए। परन्तु कर्मचारी बारबार यही पूछता था कि तुम रात को कहां ठहरे थे ? अकेले थे या कोई साथ था ? तुमने साथी को आज सवेरे देखा या नहीं। तुम मुंहअंधेरे क्यों चले आये?

भागीरथ को अचम्भा हुआ कि बात क्या है ? यह परश्न क्यों पूछे जा रहे हैं? बोला—आप तो मुझसे इस भांति पूछते हैं, जैसे मैं कोई चोर या डाकू हूं। मैं तो गंगास्नान करने जा रहा हूं। आपको मुझसे क्या मतलब है ?

कर्मचारी—मैं इस परान्त का पुलिस अफसर हूं, और यह परश्न इसलिए करता हूं कि जिस सौदागर के साथ तुम कल रात सराय में सोए थे, वह मार डाला गया। हम तुम्हारी तलाशी लेने आये हैं।

यह कह वह उसके असबाब की तलाशी लेने लगा। एकाएक थैले में से एक छुरा निकला, वह खून से भरा हुआ था। यह देखकर भागीरथ डर गया।

कर्मचारी—यह छुरा किसका है ? इस पर खून कहां से लगा ?

भागीरथ चुप रह गया, उसका कंठ रुक गया। हिचकता हुआ कहने लगा—मेरा नहीं मैं नहीं जानता।

कर्मचारी—आज सवेरे हमने देखा कि वह सौदागर गला कटे चारपाई पर पड़ा है। कोठरी अन्दर से बंद थी, सिवाय तुम्हारे भीतर कोई न था। अब यह खून से भरा हुआ छुरा इस थैले में से निकला है। तुम्हारा मुख ही गवाही दे रहा है। बस, तुमने ही उसे मारा है। बतलाओ, किस तरह मारा और कितने रुपये चुराए हैं ?

भागीरथ ने सौगन्ध खाकर कहा—मैंने सौदागर को नहीं मारा। भोजन करने के पीछे फिर मैंने उसे नहीं देखा। मेरे पास अपने आठ हजार रुपये हैं। यह छुरा मेरा नहीं।

परन्तु उसकी बातें उखड़ी हुई थीं, मुख पीला पड़ गया था और वह पापी की भांति भय से कांप रहा था।

पुलिस अफसर ने सिपाहियों को हुक्म दिया कि इसकी मुस्कें कसकर गाड़ी में डाल दो। जब सिपाहियों ने उसकी मुस्कें कसीं, तो वह रोने लगा। अफसर ने पास के थाने पर ले जाकर उसका रुपयापैसा छीन, उसे हवालात में दे दिया।

इसके बाद दिल्ली में उसके चालचलन की जांच की गई। सब लोगों ने यही कहा कि पहले वह मद्य पीकर बकझक किया करता था, पर अब उसका आचार बहुत अच्छा है। अदालत में तहकीकात होने पर उसे रामपुरनिवासी सौदागर का वध करने और बीस हजार रुपये चुरा लेने का अपराधी ठहराया गया।

भागीरथ की स्त्री को इस बात पर विश्वास न होता था। उसके बालक छोटेछोटे थे। एक अभी दूध पीता था। वह सबको साथ लेकर पति के पास पहुंची। पहले तो कर्मचारियों ने उसे उससे मिलने की आज्ञा न दी, परन्तु बहुत विनय करने पर आज्ञा मिल गई। और पहरे वाले उसे कैद घर में ले गए। ज्योंही उसने अपने पति को बेड़ी पहने हुए चोरों और डाकुओं के बीच में बैठा देखा, वह बेसुध होकर धरती पर गिर पड़ी। बहुत देर में सुध आई। वह बच्चोंसहित पति के निकट बैठ गई और घर का हाल कहकर पूछने लगी कि यह क्या बात है ? भागीरथ ने सारा वृतांत कह सुनाया।

स्त्री—तो अब क्या हो सकता है ?

भागीरथ—हमें महाराज से विनय करनी चाहिए कि वह निरपराधी को जान सेन मारें।

स्त्री—मैंने महाराज से विनय की थी, परन्तु वह स्वीकार नहीं हुई।

भागीरथ ने निराश होकर सिर झुका लिया।

स्त्री—देखा, मेरा सपना कैसा सच निकला ! तुम्हें याद है न, मैंने तुमको उस दिन मेले जाने से रोका था। तुम्हें उस दिन न चलना चाहिए था, लेकिन मेरी बात न मानी। सचसच बताओ, तुमने तो उस सौदागर को नहीं मारा न ?

भागीरथ—क्या तुम्हें भी मेरे ऊपर संदेह है ?

यह कहकर वह मुंह ांप रोने लगा। इतने में सिपाही ने आकर स्त्री को वहां से हटा दिया और भागीरथ सदैव के लिए अपने परिवार से विदा हो गया।

घर वालों के चले जाने पर जब भागीरथ ने यह विचारा कि मेरी स्त्री भी मुझे अपराधी समझती है तो मन में कहा—बस, मालूम हो गया, परमात्मा के बिना और कोई नहीं जान सकता कि मैं पापी हूं या नहीं। उसी से दया की आशा रखनी चाहिए। फिर उसने छूटने का कोई यत्न नहीं किया। चारों ओर से निराश होकर ईश्वर के ही भरोसे बैठा रहा।

भागीरथ को पहले तो कोड़े मारे गए। जब घाव भर गए तो उसे लोहग़ के बन्दी खाने में भेज दिया गया।

वह छब्बीस वर्ष बन्दीखाने में पड़ा रहा। उसके बाल पककर सन के से हो गए, कमर टे़ी हो गई, देह घुल गयी, सदैव उदास रहता। न कभी हंसता, न बोलता, परन्तु भगवान का भजन नित्य किया करता था।

वहां उसने दरी बुनने का काम सीखकर कुछ रुपया जमा किया और भक्तमाल मोल ले ली। दिनभर काम करने के बाद सांझ को जब तक सूरज का परकाश रहता, वह पुस्तक को पॄा करता और इतवार के दिन बन्दीखाने के निकट वाले मन्दिर में जाकर पूजापाठ भी कर लेता था। जेल के कर्मचारी उसे सुशील जानकर उसका मान करते थे। कैदी लोग उसे बू़े बाबा अथवा महात्मा कहकर पुकारा करते थे। कैदियों को जब कभी कोई अजीर भेजनी होती, तो वे उसे अपना मुखिया बनाते और अपने झगड़े भी उसी से चुकाया करते।

उसे घर का कोई समाचार न मिलता था। उसे यह भी न मालूम था कि स्त्रीबालक जीते हैं या मर गए।

एक दिन कुछ नये कैदी आये। संध्या समय पुराने कैदी उनके पास आकर पूछने लगे कि भाई, तुम कहां से आये हो और तुमने क्याक्या अपराध किए हैं ? भागीरथ उदास बैठा सुनता रहा। नये कैदियों में एक साठ वर्ष का हट्टाकट्टा आदमी, जिसके दा़ीबाल खूब छटे हुए थे, अपनी रामकहानी यों सुना रहा था !

‘भाइयो, मेरे मित्र का घोड़ा एक पेड़ से बंधा हुआ था। मुझे घर जाने की जल्दी पड़ी हुई थी। मैं उस घोड़े पर सवार होकर चला गया। वहां जाकर मैंने घोड़ा छोड़ दिया। मित्र कहीं चला गया था। पुलिस वालों ने चोर ठहराकर मुझे पकड़ लिया। यद्यपि कोई यह नहीं बतला सका कि मैंने किसका घोड़ा चुराया और कहां से, फिर भी चोरी के अपराध में मुझे यहां भेज दिया है। इससे पहले एक बार मैंने ऐसा अपराध किया था कि मैं लोहग़ में भेजे जाने लायक था, परंतु मुझे उस समय कोई नहीं पकड़ सका। अब बिना अपराध ही यहां भेज दिया गया हूं।

एक कैदी—तुम कहां से आये हो?

नया कैदी—दिल्ली से। मेरा नाम बलदेवसिंह है।

भागीरथ—भला बलदेवसिंह, तुम्हें भागीरथ के घर वालों को कुछ हाल मालूम है, जीते हैं कि मर गए?

बलदेव—जानना क्या? मैं उन्हें भलीभांति जानता हूं। अच्छे मालदार हैं। हां उनका पिता यहीं कहीं कैद है। मेरे ही जैसा अपराध उनका भी था। बू़े बाबा, तुम यहां कैसे आये?

भगीरथ अपनी विपत्तिकथा न कही। केवल हाय कहकर बोला—मैं अपने पापों के कारण छब्बीस वर्ष से यहां पड़ा सड़ रहा हूं।

बलदेव—क्या पाप, मैं भी सुनूं?

भागीरथ—भाई, जाने दो, पापों का फल अवश्य भोगना पड़ता है।

वह और कुछ न कहना चाहता था, परंतु दूसरे कैदियों ने बलदेव को सारा हाल कह सुनाया कि वह एक सौदागर का वध करने के अपराध में यहां कैद है। बलदेव ने यह हाल सुना तो भागीरथ को ध्यान से देखने लगा। घुटने पर हाथ मारकर बोला—वाहवाह, बड़ा अचरज है! लेकिन दादा, तुम तो बिल्कुल बू़े हो गए।

दूसरे कैदी बलदेव से पूछने लगे कि तुम भागीरथ को देखकर चकित क्यों हुए, तुमने क्या पहले कहीं उसे देखा है? परंतु बलदेव ने उत्तर नहीं दिया।भागीरथ के चित्त में यह संशय उत्पन्न हुआ कि शायद बलदेव रामपुरी सौदागर के असली मारने वाले को जानता है। बोला—बलदेवसिंह, क्या तुमने यह बात सुनी है और मुझे भी पहले कहीं देखा है।

बलदेव—वह बातें तो सारे संसार में फैल रही हैं। मैं किस तरह न सुनता; बहुत दिन बीत गए, मुझे कुछ याद नहीं रहा।

भागीरथ—तुम्हें मालूम है कि उस सौदागर को किसने मारा था?

बलदेव—(हंसकर) जिसके थैले में छुरा निकला, वही उसका मारने वाला। 

यदि किसी ने थैले में छुरा छिपा भी दिया हो, तो जब तक कोई पकड़ा न जाए, उसे चोर कौन कह सकता है? थैला तुम्हारे सिरहाने धरा था। यदि कोई दूसरा पास आकर छुरा थैले में छिपाता तो तुम अवश्य जाग उठते।

यह बातें सुनकर भागीरथ को निश्चय हो गया कि सौदागर को इसी ने मारा है। वह उठकर वहां से चल दिया, पर सारी रात जागता रहा। दुःख से उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। उसे अनेक परकार की बातें याद आने लगीं। पहले स्त्री की उस समय की सूरत दिखाई दी जब वह उसे मेले जाने को मना कर रही थी। सामने ऐसा जान पड़ा कि वह खड़ी है। उसकी बोली और हंसी तक सुनाई दी। फिर बालक दिखाई पड़े, फिर युवावस्था की याद आयी, कितना परसन्नचित्त था, कैसा आनन्द से द्वार पर बैठा सितार बजाया करता था। फिर वह सराय दिखाई दी, जहां वह पकड़ा गया था। तब वह जगह सामने आयी, जहां उस पर कोड़े लगे थे। फिर बेड़ी और बंदीखाना, फिर बु़ापा और छब्बीस वर्ष का दुःख। यह सब बातें उसकी आंखों में फिरने लगीं। वह इतना दुःखी हुआ कि जी में आया कि अभी पराण दे दूं।

‘हाय, इस बलदेव चंडाल ने यह क्या किया! मैं तो अपना सर्वनाश करके भी इससे बदला अवश्य लूंगा।’

सारी रात भजन करने पर भी उसे शांति नहीं हुई। दिन में उसने बलदेव को देखा तक नहीं। पंद्रह दिन बीत गए, भागीरथ की यह दशा थी कि न रात को नींद, न दिन को चैन। क्रोधाग्नि में जल रहा था।

एक रात वह जेलखाने में टहल रहा था कि उसने कैदियों के सोने के चबूतरे के नीचे से मिट्टी गिरते देखी। वह वहीं ठहर गया कि देखूं मिट्टी कहां से आ रही है। सहसा बलदेव चबूतरे के नीचे से निकल आया और भय से कांपने लगा। भागीरथ आंखें मूंदकर आगे जाना चाहता था कि बलदेव ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला—देखो, मैंने जूतों में मिट्टी भर के बाहर फेंककर यह सुरंग लगायी है, चुप रहना। मैं तुमको यहां से भगा देता हूं। यदि शोर करोगे तो जेल के अफसर मुझे जान से मार डालेंगे, परंतु याद रखो कि तुम्हें मारकर मरुंगा, यों नहीं मरता।

भागीरथ अपने शत्रु को देखकर क्रोध से कांप उठा और हाथ छुड़ाकर बोला—मुझे भागने की इच्छा नहीं, और मुझे मारे तो तुम्हें छब्बीस वर्ष हो चुके। रही यह हाल परकट करने की बात, जैसी परमात्मा की आज्ञा होगी, वैसा होगा।

अगले दिन जब कैदी बाहर काम करने गये तो पहरे वालों ने सुरंग की मिट्टी बाहर पड़ी देख ली। खोज लगाने पर सुरंग का पता चल गया। हाकिम सब कैदियों से पूछने लगे। किसी ने न बतलाया, क्योंकि वे जानते थे कि यदि बतला दिया तो बलदेव मारा जाएगा। अफसर भागीरथ को सत्यवादी जानते थे, उससे पूछने लगे—बू़े बाबा, तुम सच्चे आदमी हो सच बताओ कि यह सुरंग किसने लगायी है?

बलदेव पास ही ऐसे खड़ा था कि कुछ जानता ही नहीं। भागीरथ के होंठ और हाथ कांप रहे थे। चुपचाप विचार करने लगा कि जिसने मेरा सारा जीवन नाश कर दिया, उसे क्यों छिपांऊ? दुःख का बदला दुःख उसे अवश्य भोगना चाहिए, परन्तु बतला देने पर फिर वह बच नहीं सकता। शायद यह सब मेरा भरम मात्र हो, सौदागर को किसी और ने ही मारा हो। यदि इसने ही मारा तो इसे मरवा देने से मुझे क्या लाभ होगा?

अफसर—बाबा, चुप क्यों हो गए? बतलाते क्यों नहीं?

भागीरथ—मैं कुछ नहीं बतला सकता, आप जो चाहें सो करें।

हाकिम ने बारबार पूछा, परंतु भागीरथ ने कुछ भी नहीं बतलाया। बात टल गई।

उसी रात भागीरथ जब अपनी कोठरी में लेटा हुआ था, बलदेव चुपके से भीतर आकर बैठ गया। भागीरथ ने देखा और कहा—बलदेवसिंह, अब और क्या चाहते हो? यहां तुम क्यों आये?

बलदेव चुप रहा।

भागीरथ—तुम क्या चाहते हो? यहां से चले जाओ, नहीं तो मैं पहरे वाले को बुला लूंगा।

बलदेव—(पांव पर पड़कर) भागीरथ, मुझे क्षमा करो, क्षमा करो।

भागीरथ—क्यों?

बलदेव—मैंने ही उस सौदागर को मारकर छुरा तुम्हारे थैले में छिपाया था। मैं तुम्हें भी मारना चाहता था। परंतु बाहर से आहट हो गई, मैं छुरा थैले में रखकर भाग निकला।

भागीरथ चुप हो गया, कुछ नहीं बोला।

बलदेव—भाई भागीरथ, भगवान के वास्ते मुझ पर दया करो, मुझे क्षमा करो। मैं कल अपना अपराध अंगीकार कर लूंगा। तुम छूटकर अपने घर चले जाओगे।

भागीरथ—बातें बनाना सहज है। छब्बीस वर्ष के इस दुःख को देखो, अब मैं कहां जा सकता हूं? स्त्री मर गई, लड़के भूल गए, अब तो मेरा कहीं ठिकाना नहीं है।

बलदेव धरती से माथा फोड़, रोरोकर कहने लगा—मुझे कोड़े लगने पर भी इतना कष्ट नहीं हुआ था, जो अब तुम्हें देखकर हो रहा है। तुमने दया करके सुरंग की बात नहीं बतलायी। क्षमा करो, क्षमा करो, मैं अत्यन्त दुःखी हो रहा हूं!

यह कह बलदेव धाड़ मारकर रोने लगा। भागीरथ के नेत्रों से भी जल की धारा बह निकली। बोला—पूर्ण परमात्मा, तुम पर दया करें, कौन जाने कि मैं अच्छा हूं अथवा तुम अच्छे हो। मैंने तुम्हें क्षमा किया।

अगले दिन बलदेवसिंह ने स्वयं कर्मचारियों के पास जाकर सारा हाल सुनाकर अपना अपराध मान लिया, परंतु भागीरथ को छोड़ देने का जब परवाना आया, तो उसका देहान्त हो चुका था


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