बिहार-झारखण्ड और नेपाल के धरोहर को समृद्ध बनाता सामा-चकेवा
भारत विविधताओं का देश है. एक ऐसा देश जहाँ हर 35-40 किलोमीटर की दुरी के बाद भाषा बदल जाती है. अगर भाषा नहीं भी बदले तो बोलने का ढंग ज़रूर बदल जाता है. इतनी सारी विविधताओं के बिच ना जाने कितनी परम्पराओं ने अपने पैर पसारे हुए हैं. हम भारतीय तो पहली हवाई यात्रा का बोर्डिंग पास भी संभाल कर वर्षों तक रखते है और यहां तो ऐसी परंपरा सदियों से चलती आ रही है, उसे कैसे ना संभालें. कुछ लोग होते है, जो अपनी विरासत को खोना नहीं चाहते है. अपने समाज में उसे जिन्दा रखकर वो अपने ज़िंदा होने का सबूत खुद को देते है. अपने आने वाली पीढ़ी को वो यह नहीं कहना चाहते की हमारे जमाने में ऐसा होता था. वो अपने जमाने में होते रहने वाले चीज़ों से अपने आने वाली पीढ़ी को भी अवगत करवाना चाहते है. वे परम्पराओं को मरने नहीं देते है. वे परम्पराओं को परम्परागत ढंग से निर्वहन करते है. ऐसा ही एक परम्परा है सामा - चकेवा. ये पर्व सम्पूर्ण बिहार में और मुख्य रूप से मिथिलांचल तथा दक्षिणी नेपाल में मनाया जाता है.
मनाने के पीछे धारणा क्या है
ज्ञातव्य हो की दीपावली के बाद आने वाले भाई-दूज के तरह ही इस पर्व को भी भाई-बहन के प्रेम के प्रतीक के तौर पर मनाया जाता है. इसके पीछे कई पौराणिक कहानियों की चर्चा है. वास्तव में इसका कोई स्पष्ट प्रमाण किसी पुराणों में भी दर्ज़ नहीं है लेकिन सदियों से यह परम्परा जारी है. सामा-चकेवा भाई बहन के प्रेम का पर्व ही नहीं, बल्कि प्रकृति से मनुष्य को जोड़ने वाला पर्व भी है. इस पर्व के पीछे जो सबसे लोकप्रिय कहानी है वो कुछ इस प्रकार है:
भगवान श्री कृष्ण को एक पुत्र और एक पुत्री हुए. पुत्र का नाम चकेवा तथा पुत्री का नाम सामा रखा गया. दोनों भाई-बहन में बचपन से ही असीम स्नेह था. बहन सामा जो थी वो प्रकृति प्रेमी थी. वो अपनी दासी के साथ अक्सर वृंदावन जाकर ऋषि-मुनियों के बीच खेला करती थी. उसकी दासी का नाम डीहुली था. डीहुली का नाम सामा-चकेवा वाले लोक गीतों में प्रमुखता से लिया जाता है. वो अपने जीवन में बहुत आनंदित थी. उसी दरम्यान भगवान श्री कृष्ण के एक मंत्री, जिसका नाम चुरक (चुगला) था, उसने सामा के विरुद्ध कृष्ण जी के कान भरने शुरू कर दिए. भरे राजभवन में उन्होंने सामा पर वृंदावन के एक तपस्वी के साथ अवैध संबंध रहने की बात कृष्ण से कही. कृष्ण का चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा. जिसपर आक्रोश में आकर भगवान श्री कृष्ण ने अपनी पुत्री सामा को आजीवन पक्षी बनकर जीने का श्राप दे दिया (क्योंकि उस समय में ऑनर किलिंग वाला मामला कम प्रचलित था). राजकुमारी सामा फिर मनुष्य से पक्षी बन गई और वृंदावन में विचरण करने लगी.
यह देख कर साथ खेलने वाले ऋषि-मुनियों को बहुत दुख हुआ. वे लोग सामा से इतना ज़्यादा इमोशनल अटैच्ड हो गए थे की वे लोग भी पक्षी बन गये और साथ में फिर से अपनी पुरानी दुनिया बना ली. ये सब पूरा कांड जब भाई चकेवा को पता चला तो वो अपने पिता कृष्ण को बहुत समझाने का प्रयास किया. लेकिन वो तो ठहरे बाप और मामला बेटी से जुड़ा होने के कारण वो अपनी ज़ुबान से टस से मस नहीं हुए. अंत में हार कर चकेवा ने अपने परंपरागत थ्योरी का प्रयोग किया और बैठ गए आमरण अनशन पर. उस समय में इस क्रिया को तपस्या कहा जाता था. जब चकेवा अपनी तपस्या में लीन हो गये और कई दिनों के बाद जब देवनगरी डोली तब जाके बाप का करेजा पसीजा. फाईनली भगवान श्री कृष्ण ने वरदान देते हुए वचन दिया की सामा हर साल कार्तिक के महीने में आठ दिनों के लिए उसके पास आएगी और कार्तिक पूर्णिमा को पुनः लौट जाएगी. चूँकि कार्तिक महीना में सामा और चकेवा का मिलन हुआ था, इसीलिए उसी दिन की याद में आज भी सामा-चकेवा का त्योहार मनाने की परंपरा है.
प्रकृति से भी जुड़ने का संदेश देता है
सामा-चकेवा के आठ दिवसीय त्योहार का प्रकृति एवं पर्यावरण से गहरा संबंध है. क्योंकि इस आयोजन का एक बड़ा उदेश्य मिथिला क्षेत्र में आने वाले प्रवासी पक्षियों को सुरक्षा और सम्मान देना भी है, जो इन दिनों दूर दराज से इस क्षेत्र में आते है. पर्यावरणविदों का मानना है की बड़े जलाशयों एवं नदियों में वास करने वाले इन पक्षियों को शिकारियों के हाथों बचाने के लिए मिथिला की माता-बहनें इस प्रकार का आयोजन प्रतिवर्ष कर पक्षी प्रेम का संदेश देती है.
मनाते कैसे है
पहले तो चिकनी मिट्टी को गीला करके उससे सामा-चकेवा, सातभईया (ब्रह्मांड के सातों तारे के गुच्छे को यहाँ सात भाई जैसे देखा जाता है), चुरक (चुगला) इत्यादि जैसे कुछ पारंपरिक छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाई जाती है. फिर उसको डालिया में सजाकर रख दिया जाता है. और फिर शाम होते ही सामा चकेवा को डोली में सजा भाई की दीर्घायु के लिए अपने सखी-सहेलियों के साथ गीत गाने निकल पड़ती है.
रिवाज के मुताबिक सामा-चकेवा खेलने के दौरान प्रतिदिन चुरक (चुगला) के मूँछों को थोड़ा-थोड़ा जलाया जाता है. इसके पीछे धारणा यह है की उसे उसके कर्मों के लिए दंडित किया जाता है. फिर आता है कार्तिक पूर्णिमा का दिन. और उस पूर्णमासी की रात व्रत करने वाली बहनों के भाई सब मिट्टी के बने सामा-चकेवा समेत सभी मूर्तियों को अपने घुटने के बाल तोड़ते हैं. फिर बैंड बाजा के साथ सामा बेटी को घर से दूर किसी जोते हुए खेत में विसर्जन कर इस आठ दिनों के पर्व को समाप्त किया जाता है और अगले साल फिर से आने के लिए कहा जाता है.