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कहानी – कंजूस और सोना

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एक आदमी था, जिसके पास काफी जमींदारी थी, मगर दुनिया की किसी दूसरी चीज से सोने की उसे अधिक चाह थी। इसलिए पास जितनी जमीन थी, कुल उसने बेच डाली और उसे कई सोने के टुकड़ों में बदला। सोने के इन टुकड़ों को गलाकर उसने बड़ा गोला बनाया और उसे बड़ी हिफाजत से जमीन में गाड़ दिया। उस गोले की उसे जितनी परवाह थी, उतनी न बीवी की थी, न बच्‍चे की, न खुद अपनी जान की। हर सुबह वह उस गोले को देखने के लिए जाता था और यह मालूम करने के लिए कि किसी ने उसमें हाथ नहीं लगाया! वह देर तक नजर गड़ाए उसे देखा करता था। 

कंजूस की इस आदत पर एक दूसरे की निगाह गई। जिस जगह वह सोना गड़ा था, धीरे-धीरे वह ढूँढ़ निकाली गई। आखिर में एक रात किसी ने वह सोना निकाल लिया। 

दूसरे रोज सुबह को कंजूस अपनी आदत के अनुसार सोना देखने के लिए गया, मगर जब उसे वह गोला दिखाई न पड़ा, तब वह गम और गुस्‍से में जामे से बाहर हो गया। 

उसके एक पड़ोसी ने उससे पूछा, ”इतना मन क्‍यों मारे हुए हो? असल में तुम्‍हारे पास कोई पूँजी नहीं थी, फिर कैसे वह तुम्‍हारे हाथ से चली गई? तुम सिर्फ एक शौक ताजा किए हुए थे कि तुम्‍हारे पास पूँजी थी। तुम अब भी खयाल में लिए रह सकते हो कि वह माल तुम्‍हारे पास है। सोने के उस पीले गोले की जगह उतना ही बड़ा पत्‍थर का एक टुकड़ा रख दो और सोचते रहो कि वह गोला अब भी मौजूद है। पत्‍थर का वह टुकड़ा तुम्‍हारे लिए सोने का गोला ही होगा, क्‍योंकि उस सोने से तुमने सोनेवाला काम नहीं लिया। अब तक वह गोला तुम्‍हारे काम नहीं आया। उससे आँखें सेंकने के सिवा काम लेने की कभी तुमने सोची ही नहीं।” 

यदि आदमी धन का सदुपयोग न करे, तो उस धन की कोई कीमत नहीं। 

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3 thoughts on “कंजूस और सोना – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी

  1. सुन्दर कहानी

    1. धन्यवाद. ऐसे ही पढ़िए और अपनी राय रखिये. हम और भी कहानियाँ, कवितायें, आदि लाते रहेंगे.

    2. Thanks Onkar.

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